अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 9
ऋषिः - भृगुः
देवता - आज्यम्, अग्निः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
86
शृ॒तम॒जं शृ॒तया॒ प्रोर्णु॑हि त्व॒चा सर्वै॒रङ्गैः॒ संभृ॑तं वि॒श्वरू॑पम्। स उत्ति॑ष्ठे॒तो अ॑भि॒ नाक॑मुत्त॒मं प॒द्भिश्च॒तुर्भिः॒ प्रति॑ तिष्ठ दि॒क्षु ॥
स्वर सहित पद पाठशृ॒तम् । अ॒जम् । शृ॒तया॑ । प्र । ऊ॒र्णु॒हि॒ । त्व॒चा । सर्वै॑: । अङ्गै॑: । सम्ऽभृ॑तम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । स: । उत् । ति॒ष्ठ॒ । इ॒त: । अ॒भि । नाक॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् । प॒त्ऽभि: । च॒तु:ऽभि॑: । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । दि॒क्षु॒ ॥१४.९॥
स्वर रहित मन्त्र
शृतमजं शृतया प्रोर्णुहि त्वचा सर्वैरङ्गैः संभृतं विश्वरूपम्। स उत्तिष्ठेतो अभि नाकमुत्तमं पद्भिश्चतुर्भिः प्रति तिष्ठ दिक्षु ॥
स्वर रहित पद पाठशृतम् । अजम् । शृतया । प्र । ऊर्णुहि । त्वचा । सर्वै: । अङ्गै: । सम्ऽभृतम् । विश्वऽरूपम् । स: । उत् । तिष्ठ । इत: । अभि । नाकम् । उत्ऽतमम् । पत्ऽभि: । चतु:ऽभि: । प्रति । तिष्ठ । दिक्षु ॥१४.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (विश्वरूपम्) संपूर्ण रूप से (सर्वैः) सब (अङ्गैः) अङ्गों के साथ (संभृतम्) भले प्रकार पुष्ट, और (शृतम्) परिपक्व [दृढ़ ज्ञानी] (अजम्) जीवात्मा को (शृतया) परिपक्व (त्वचा) विस्तृत शक्ति से (प्र) भले प्रकार (ऊर्णुहि) ढकले। (सः) सो तू (इतः) यहाँ से (उत्तमम्) सर्वोत्तम (नाकम्) सुखस्वरूप परब्रह्म को (अभि= अभिलक्ष्य) लखकर (उत् तिष्ठ) उठ, और (चतुर्भिः पद्भिः) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पदार्थों के सहित (दिक्षु) सब दिशाओं में (प्रतितिष्ठ) प्रतिष्ठित हो ॥९॥
भावार्थ
मनुष्य उपरोक्त रीति से पञ्च भूत और जीवात्मा के विवेक से पक्का ज्ञानी होकर सब प्रकार पुष्ट और परमात्मा में लवलीन होकर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, की प्राप्ति से संसार भर में प्रतिष्ठावान् होता है ॥९॥
टिप्पणी
९−(शृतम्) श्रा वा श्रै पाके-क्त। शृतं पाके। पा० ६।१।२७। इति शृभावः। पक्वम्। परिपक्वज्ञानम् (अजम्) म० १। जीवात्मानम् (शृतया) परिपक्वया। दृढया (प्र ऊर्णुहि) ऊर्णुञ् आच्छादने। प्रकर्षेणाच्छादय (त्वचा) तनोतेरनश्च वः। उ० २।६३। इति तनु विस्तारे−चिक्, अनश्च वः। यद्वा, त्वच संवरणे-क्विप्। विस्तृतशक्त्या। ज्ञानावरणेन वा (सर्वैः) अशेषैः (अङ्गैः) अवयवैः (संभृतम्) सम्यक् पुष्टम् (विश्वरूपम्) यथा तथा। सर्वरूपेण। सर्वाकारेण (सः) तादृशः परिपक्वज्ञानः (उत् तिष्ठ) उद्गच्छ (इतः) अस्माद् देशात् (अभि) अभिलक्ष्य (नाकम्) दुःखरहितं परब्रह्म (उत्तमम्) श्रेष्ठम् (पद्भिः) पद स्थ्यैर्ये गतौ च-क्विप्। धर्मार्थकाममोक्षाख्यैः पदार्थैः (चतुर्भिः) (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठितो भव (दिक्षु) सर्वासु दिशासु ॥
विषय
'शृत अज'
पदार्थ
१. गतमन्त्रों में वर्णित साधना के अनुसार (शृतम्) = जिसका ठीक परिपाक हुआ है, उस (अजम्) = गतिशीलता के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाले व्यक्ति को (शृतया) = त्वचा से (प्रोहि) = आच्छादित कर, अर्थात् तपस्या के द्वारा हम त्वचा को कठोर बनाएँ। इसप्रकार शरीर बीमारियों का शिकार नहीं होगा। इस 'अज' में (सर्वैः अङ्ग:) = पूर्ण स्वस्थ [सर्व-Whole] अङ्गों से (विश्वरूपं संभृतम्) = सम्पूर्ण शरीर का सौंदर्य संभृत हुआ है। २.हे अज ! (स:) = वह तू (इत:) = यहाँ से-इस पार्थिवलोक में निवास से (नाकम् अभि) = मोक्ष की ओर (उत्तिष्ठ) = उठ खड़ा हो। तू (दिक्ष) = सब दिशाओं में, अर्थात् सर्वत्र (चतुर्भिः पद्धिः) = 'धमार्थ-काममोक्ष रूप चारों पगों के द्वारा (प्रतितिष्ठ) = जीवन-यात्रा में प्रस्थित हो। अथवा 'स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दान' रूप चारों धर्मों का पालन करता हुआ तू मोक्ष की ओर बढ़।
भावार्थ
हम तपस्या की अग्नि में अपना ठीक परिपाक करें। हमारी त्वचा तपः परिपक्व हो, शरीर स्वस्थ अङ्गों के सौन्दर्य से परिपूर्ण हो तथा 'स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दान' रूप चार धर्मों के पालन के द्वारा हम मोक्ष की ओर बढ़ें।
विशेष
इसप्रकार जीवन का ठीक परिपाक करनेवाला अज 'अथर्वा' बनता है-स्थिर वृत्ति का। यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(सर्वैः अङ्गः) सब अंगों से (सम्भृतम्) संयुक्त, (विश्वरूपम्) सम्पूर्ण आकृतिवाले (श्रुतम्) हिंसित अर्थात् अग्निदग्ध (अजम्) अज के शरीर को (शृतया त्वचा) हिंसित अर्थात् अतिदग्ध-त्वक् द्वारा (प्रोर्णुहि) पूर्णतया आच्छादित कर। (सः) वह तू हे जीवात्मन् ! (इतः उत् तिष्ठ) इस शरीर से उठ, और (उत्तमम्) सर्वोत्तम (नाकम्) दु:खासंस्पृष्ट नाकलोक के (अभी) संमुख (चतुर्भिः पद्भिः) धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी चार पादों सहित (दिक्षु) नाना दिशाओं में (प्रतितिष्ठ) दृढ़ स्थित हो जा।
टिप्पणी
[शरीर तो अग्नि द्वारा शृत हो गया, (शृ हिंसायाम् क्र्यादि) + क्त। शरीर की त्वचा भी शृत हो गई, अग्निदग्ध हो गई (शृतया त्वचा)। अब बची है शरीर की भस्म। यह है त्वक् या त्वचारूप। इस द्वारा अवशिष्ट अग्निदग्ध अस्थियों को आच्छादित करना है (प्रोर्णुहि), प्र+ऊणुञ् आच्छादने (अदादिः)। भस्म द्वारा अस्थियों को आच्छादित कर उन्हें पृथिवी में गाड़ देना है, (यजु० ३५।२१) में निर्दिष्ट विधि द्वारा।][विशेष वक्तव्य --(१) सायणाचार्य ने समग्र सूक्त में चार पैरों वाले बकरे का वर्णन माना है। समग्र सूक्त के वर्णन और अभिप्राय सायणाचार्य के मत के विपरीत हैं। मन्त्र ९ में “पद्भिः चतुर्भिः प्रति तिष्ठ दिक्षु" (मन्त्र ९) में चार पादों का कथन देखकर चार पैरोंवाले बकरे की कल्पना सम्भव है। परन्तु पाद या चार पाद निश्चयरूप में बकरे के चार पैरों के निर्देशक नहीं हैं। अष्टाध्यायी में प्रत्येक अध्याय को चार पादों में विभक्त किया है। माण्डूक्य उपनिषद् में "सर्वं ह्येतद् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, सोऽयमात्मा चतुष्पात्" (कण्डिका २) में ब्रह्म को ' चतुष्पात्' अर्थात् चार पादोंवाला वर्णित किया है। 'चतुष्पात्' वर्णन से क्या ब्रह्म को पशु समझा जाय? (२) सूक्त में 'अज' पद भी पठित है। अज का अर्थ बकरा भी होता है। परन्तु 'अजा' तथा 'अजद्वय' का अभिप्राय अजन्मा प्रकृति तथा जीवात्मा और ब्रह्म भी होता है। यथा— अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। अजो ह्येको जुषमाणोऽनु शेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥ —श्वेताश्वतर उपनिषद् अध्याय ४ (खण्ड ५) । अज है प्रकृति; लोहित है रजोभाग, शुक्ल है सत्त्वभाग, कृष्ण है तमस् भाग। अनुशेते है जीवात्मा, और जहाति द्वारा परमेश्वर कथित हुआ है। भुक्तभोगाम् प्रकृति है जोकि जीवात्मा द्वारा मुक्त हुई है। जीवात्मा अज्ञानवश प्रकृति के भोग के लिए, प्रकृति के साथ सोया रहता है । (३) मन्त्र ३, अध्यात्मपक्ष में पृथिवी है पाद; अन्तरिक्ष है वायु प्रधान छाती अर्थात् फेफड़े और हृदय; दिवम् है मस्तिष्क, स्वः है ब्रह्मरन्ध्र से परे ब्रह्मज्योति, जोकि सुखस्वरूप है। ]
विषय
‘अज’ प्रजापति का स्वरूपवर्णन।
भावार्थ
(सर्वैः अंगैः संभृतम्) सब अंगों की दृष्टि से जो संहारावस्था को प्राप्त होगया है, अर्थात् जो देह को छोड़ गया है, (विश्वरूपम्) तथा जन्म जन्मान्तरों के कारण नाना रूपों को धारण करता है (अजम्) उस अजन्मा जीवात्मा के (शृतम्) शरीर को (शृतया त्वचा) शीर्ण करने वाली आग्नेय-त्वचा द्वारा अर्थात् अग्नि द्वारा (प्रोर्णुहि) आच्छादित करना चाहिये। (सः) और वह अजन्मा जीवात्मा (इतः) इस देह से (उत्तमं नाकं अभि) उत्तम आनन्दमय ब्रह्मलोक की ओर चला जाता है, (पद्भिः चतुर्भिः) और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष जो कि पुरुषार्थ के चार चरण हैं उन द्वारा (दिक्षु) नाना दिशाओं में (प्रति तिष्ठ) विचरता हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। आाज्यमग्निर्वा देवता। १, २, ६ त्रिष्टुभः। २, ४ अनुष्टुभौ,३ प्रस्तार पंक्तिः। ७, ९ जगत्यौ। ८ पञ्चपदा अति शक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Light Spiritual
Meaning
O Lord, pray cover and consecrate Aja, immortal human soul, complete in all aspects of human virtue, perfected and raised to universal character in the existential medium of personality, enfold it in the infinite grace of Divinity. O man, completed, perfected, universalised, and now consecrated with divine grace, rise from the earth to the highest state of divine bliss and with all four stages of ascension from existence to essence, sojourn in perfect freedom over all directions of eternal time and space. Note: This sukta is a song of the immortal human soul’s ascension from the mortal state of existence to its immortal state of essence abiding in the perfect freedom of Moksha through eight parts (angas) of yoga and four parts of Dharma (Dharma, Artha, Kama and Moksha). ‘Aja chatushpat’ of verse 9 does not mean ‘four-footed goat’, it means the immortal human soul, yoga-practising and self-realising through all four states of waking, dreaming, sleeping and meditating, rising to the turiya state (Mandukyopanished, 2-7 and 8-12).
Translation
With cooked cream cover the cooked old rice, complete with all its parts and having all sorts of appearances. As such, O rice, may go up towards the best sorrowless world, and with your four feet may you be firmly established in the regions of heaven.
Translation
O Yajna-priest! Cover with dry dear skin the Aja, the Yajmana who is completely stout and sturdy with all his limbs and is mature in knowledge. He rise from this worldly; state to the highest state of salvation and rise to fame in four directions with his four chief attainments of life—Dharma, righteousness ; Artha, gain of wealth ; Kama, the fulfillment ‘of Carnal desire ; and Moksha, the emancipation.
Translation
O man, robe well, with thy mature, vast force, the soul, that assumes different forms in different births, feels strong with all its organs, and is equipped with mature knowledge. Advance from here to the Most Exalted God, and with thy four feet stand firmly in the world.
Footnote
Four feet: Dharma, Arth, Kama, Moksha.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(शृतम्) श्रा वा श्रै पाके-क्त। शृतं पाके। पा० ६।१।२७। इति शृभावः। पक्वम्। परिपक्वज्ञानम् (अजम्) म० १। जीवात्मानम् (शृतया) परिपक्वया। दृढया (प्र ऊर्णुहि) ऊर्णुञ् आच्छादने। प्रकर्षेणाच्छादय (त्वचा) तनोतेरनश्च वः। उ० २।६३। इति तनु विस्तारे−चिक्, अनश्च वः। यद्वा, त्वच संवरणे-क्विप्। विस्तृतशक्त्या। ज्ञानावरणेन वा (सर्वैः) अशेषैः (अङ्गैः) अवयवैः (संभृतम्) सम्यक् पुष्टम् (विश्वरूपम्) यथा तथा। सर्वरूपेण। सर्वाकारेण (सः) तादृशः परिपक्वज्ञानः (उत् तिष्ठ) उद्गच्छ (इतः) अस्माद् देशात् (अभि) अभिलक्ष्य (नाकम्) दुःखरहितं परब्रह्म (उत्तमम्) श्रेष्ठम् (पद्भिः) पद स्थ्यैर्ये गतौ च-क्विप्। धर्मार्थकाममोक्षाख्यैः पदार्थैः (चतुर्भिः) (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठितो भव (दिक्षु) सर्वासु दिशासु ॥
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