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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भृगुः देवता - आज्यम्, अग्निः छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
    48

    प्र॒तीच्यां॑ दि॒शि भ॒सद॑मस्य धे॒ह्युत्त॑रस्यां दि॒श्युत्त॑रं धेहि पा॒र्श्वम्। ऊ॒र्ध्वायां॑ दि॒श्यजस्यानू॑कं धेहि दि॒शि ध्रु॒वायां॑ धेहि पाज॒स्य॑म॒न्तरि॑क्षे मध्य॒तो मध्य॑मस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒तीच्या॑म् । दि॒शि । भ॒सद॑म् । अ॒स्य॒ । धे॒हि॒ । उत्त॑रस्याम् । दि॒शि । उत्त॑रम् । धे॒हि॒ । पा॒र्श्वम् । ऊ॒र्ध्वाया॑म् । दि॒शि । अ॒जस्य॑ । अनू॑कम् । धे॒हि॒ । दि॒शि । ध्रु॒वाया॑म् । धे॒हि॒ । पा॒ज॒स्य᳡म् । अ॒न्तरि॑क्षे । म॒ध्य॒त: । मध्य॑म् । अ॒स्य॒ ॥१४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतीच्यां दिशि भसदमस्य धेह्युत्तरस्यां दिश्युत्तरं धेहि पार्श्वम्। ऊर्ध्वायां दिश्यजस्यानूकं धेहि दिशि ध्रुवायां धेहि पाजस्यमन्तरिक्षे मध्यतो मध्यमस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतीच्याम् । दिशि । भसदम् । अस्य । धेहि । उत्तरस्याम् । दिशि । उत्तरम् । धेहि । पार्श्वम् । ऊर्ध्वायाम् । दिशि । अजस्य । अनूकम् । धेहि । दिशि । ध्रुवायाम् । धेहि । पाजस्यम् । अन्तरिक्षे । मध्यत: । मध्यम् । अस्य ॥१४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (प्रतीच्याम्) पश्चिम वा पीछेवाली (दिशि) दिशा में (अस्य) इस [जीवात्मा] के (भसदम्) दीप्ति वा कटि भाग को (धेहि) धर, (उत्तरस्याम्) उत्तर वा बाईं (दिशि) दिशा में (उत्तरम्) बाएँ (पार्श्वम्) कक्षा के नीचे भाग को (धेहि) धर। (ऊर्ध्वायाम्) ऊपरवाली (दिशि) दिशा में (अजस्य) जीवात्मा की (अनूकम्) रीढ़ को (धेहि) धर, (ध्रुवायाम्) स्थिर (दिशि) दिशा में (अस्य) इसके (पाजस्यम्) बल देनेवाले उदर को, और (अन्तरिक्षे) आकाश में (मध्यतः) बीचाबीच (मध्यम्) मध्य भाग को (धेहि) धर ॥८॥

    भावार्थ

    मन्त्र ७ देखो।

    टिप्पणी

    ८−(प्रतीच्याम्) अ० ३।२६।३। पश्चिमायाम् पश्चात् स्थितायाम् (दिशि) दिशायाम् (भसदम्) शॄदृभसोऽदिः। उ० १।१३०। इति भस भर्त्सनदीप्त्योः-अदि। कटिप्रदेशं जघनं वा (अस्य) अजस्य (धेहि) स्थापय (उत्तरस्याम्) उदीच्याम्। वामभागवर्तमानायाम् (उत्तरम्) वामभागस्थम् (पार्श्वम्) म० ७ (ऊर्ध्वायाम्) अ० ३।२६।६। उपरि वर्तमानायाम् [अजस्य] म० १। जीवात्मनः (अनूकम्) अनु+उच् समवाये घञर्थे कः। न्यङ्क्वादीनां च। पा० ७।३।५३। इति कुत्वम्। पृष्ठवंशम् (ध्रुवायाम्) अ० २।२६।४। स्थिरायाम्। अधस्तात् (पाजस्यम्) पाज इति बलनाम-निघ० २।९। पाजसे हितम्। बलकरमङ्गम्। उदरम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (मध्यतः) मध्यभागे (मध्यम्) शरीरमध्यभागम् (अस्य) निर्दिष्टस्य ॥

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    विषय

    अज' का जीवन

    पदार्थ

    १.(अस्य) = इस अज के (भसदम) = कटिप्रदेश [उपस्थ] को (प्रतीच्या दिशि) = प्रतीची दिशा में (धेहि) = स्थापित कर, अर्थात् इसे भोगवृत्ति से [प्रति अञ्च] प्रत्याहत कर । (उत्तरं पाश्वम्) = उत्तर पार्श्व को (उत्तरस्यां दिशि) = उत्तर दिशा में (धेहि) = स्थापित कर । शरीर में 'वामपार्श्व' को ही उत्तर पार्श्व कहा जाता है। यह 'वामपार्श्व' बाम, अर्थात् सुन्दर ब उत्कृष्ट कार्यों को ही करनेवाला हो। २. (अजस्य) = गतिशीलता द्वारा वासनाओं को परे फेंकनेवाले इस अज की (अनुकम्) = पृष्ठवंश की अस्थि को [Spine, Backbone] (ऊर्ध्वायं दिशि धेहि) = ऊर्ध्व दिशा में स्थापित कर, अर्थात् इसे कभी झुकने न दे। पृष्ठवंश के सीधे रहने पर ही दीर्घजीवन निर्भर है। तू (पाजस्यम्) = बलपशु  के लिए हितकर उदर को ध्(रुवायां दिशि) = ध्रुव दिशा में (धेहि) = स्थापित कर, अर्थात् (उदर) = सम्बद्ध भोजन की मर्यादा का कभी भी उल्लंघन मत कर और अन्त में (अस्य) = इस अज के (मध्यम्) = मध्यभाग को (अन्तरिक्षे मध्यत:) =  अन्तरिक्ष में मध्य के दृष्टिकोण से स्थापित कर । हृदयान्तरिक्ष में कभी भी निर्मर्याद भावनाएँ न उठें। हदय सदा स्वर्णीय मध्य को अपनाने की वृत्तिवाला हो।

    भावार्थ

    'अज' वह है जोकि उपस्थ का संयम करता है, वामहस्त से वाम [सुन्दर] कार्यों को ही करता है, पृष्ठवंश को सीधा रखता है, भोजन की मर्यादा को कभी तोड़ता नहीं और हृदय में स्वर्णीय मध्म में चलने की वृत्तिवाला होता है।

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    भाषार्थ

    (अस्य) इस अज के (भसदम्१) गुदा भाग को (प्रतीच्याम्, दिशि) पश्चिम दिशा में (धेहि) स्थापित कर, (उत्तरम्, पार्श्व) उत्तर पार्श्व को (उत्तरस्याम्, दिशि) उत्तर दिशा में (धेहि) स्थापित कर। (अजस्य) अज के (अनूकम्) पृष्ठभाग को (ऊर्ध्वायाम, दिशि) ऊर्ध्व दिशा में (धेहि) स्थापित कर, (ध्रुवायाम्, दिशि) ध्रुवा दिशा में (पाजस्यम्) पेट को (धेहि) स्थापित कर, (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में अर्थात् (मध्यतः) अन्तरिक्ष के मध्य में (मध्यम्) शरीर के मध्य भाग को (धेहि) स्थापित कर।

    टिप्पणी

    [अज के निर्जीव शरीर की चिता पर स्थापन-विधि से यह स्पष्ट है कि शरीर के पृष्ठभाग को तो ऊर्ध्वा दिक् में अर्थात् आकाश की ओर, तथा पेट को ध्रुवादिक् में अर्थात् पृथिवी पर स्थापित किया है। यह विधि सर्वसाधारण शवस्थापन विधि के विपरीत है। कारण यह है कि यह 'अज' मृत्यु के पश्चात् मुक्त होकर ऊर्ध्वा दिक् की ओर ही प्रयाण करता है। पृष्ठवंश में एक सुषुम्ना नाड़ी होती है जिसमें आठ चक्र होते हैं "अष्टाचका नवद्वारा देवानां पूरयोध्या" (अथर्व० १०।२।३१)। आठ चक्र हैं: मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, ललना, आज्ञा, सहस्रार। अनाहत चक्र का स्थान हृदय के समीप है। एक 'निम्न मानस चक्र' (lower minus चक्र plexes) भी है। इनमें से अनाहतचक्र हृदय को नियन्त्रित करता है जोकि जीवात्मा और परमात्मा का निवास स्थान है। इस निवास-स्थान में जीवात्मा परमात्मा की उपासना द्वारा, मोक्ष प्राप्त कर शरीर त्यागता है और पृष्ठवंशस्थ सुषुम्ना नाड़ी के इस अनाहत स्थान से जीवात्मा ऊर्ध्व गति को प्राप्त होता है। अनाहत चक्र बद्ध आत्माओं को, निज अनखिली अर्थात् अविकसित अवस्था में घेरे रहता है, और मुक्त आत्माओं के लिए ऊर्ध्वमुखरूप में खिल जाता है, और मुक्तात्मा इस खिले कमल द्वारा ऊर्ध्व गतिक हो जाते हैं। इसलिए मुक्तात्मा के शव के पृष्ठभाग को ऊर्ध्वादिक् की ओर स्थापित किया जाता है (देखो, "पातञ्जलयोगप्रदीप" द्वारा, स्वामी ओमानन्द जी तीर्थ, आर्यसाहित्य मण्डल लि०, अजमेर)। यथा अनाहतचक्र कमल के सदृश है, खिलकर वह १२ पंखड़ियों वाला हो जाता है। हृदय है जीवात्मा और परमात्मा का निवास-स्थान। तथा- अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।। तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते। तस्मिन् यद् यक्षमात्मन्वत् तद् वै ब्रह्मविदो विदुः॥ प्र भ्राजमानां हरिणीं यशसा संपरीवृताम्। पुरं हिरण्ययों ब्रह्मविवेशापराजिताम् ॥— अथर्व० १०।२।३१-३३ (यक्षमात्मन्वत् =यक्ष अर्थात् यजनीय तथा पूजनीय (चुरादि:) ब्रह्म जोकि आत्मन्वत् है, आत्मा अर्थात् जीवात्मावाला है, जीवात्मा में प्रविष्ट है, या जीवात्मा जिसमें प्रविष्ट है। इस प्रकार 'हृदयपू:' में जीवात्मा और ब्रह्म दोनों की स्थिति दर्शाई है। यजुर्वेद में भी कहा है कि "उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि सं विवेश" (३२।११) अर्थात् जीवात्मा का प्रवेश ब्रह्मात्मा में हो जाता है।] चिता पर स्थित और अग्निदग्ध हो जाने पर शेष अस्थियों के सम्बन्ध में मन्त्र में कहा है।] [१. आमाशयस्थानम् (दशपाद्युणादिवृत्ति: ६।४२)। भसत्= जथनं वा (उणादि १।१३०; दयानन्द)। भस् धातु का अर्थ भक्षण भी है। यथा "भसथ:=अश्नीथः (निरुक्त ५।४।२२)। सम्भवतः भक्षणार्थ की दृष्टि से भसत् का अर्थ 'आमाशय' किया है (उणादि आवृत्ति में)।]

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    विषय

    ‘अज’ प्रजापति का स्वरूपवर्णन।

    भावार्थ

    (उत्तरं पार्श्वम्) और बाएं पार्श्व को (उत्तरस्यां दिशि घेहि) उत्तर दिशा में रखना चाहिये, (अस्य भसदम्) और इसके चूतड़ के भागको (प्रतीच्यां दिशि धेहि) पश्चिम दिशा में स्थापित करना चाहिये, (अनूकम्) और इसकी पीठ को (ऊर्ध्वायां दिशि वेहि) आकाश की ओर रखना चाहिये, (पाजस्यम्) और सामने के भाग को (ध्रुवायां दिशि) पृथिवी के ऊपर रखना चाहिये, (मध्यम्) और इस का मध्य भाग अर्थात् पीठ और पेट को स्तनों के मध्य का भाग (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष अर्थात् बीच में रहना चाहिये। इस प्रकार उसका दाह-कर्म करना चाहिये। ८

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। आाज्यमग्निर्वा देवता। १, २, ६ त्रिष्टुभः। २, ४ अनुष्टुभौ,३ प्रस्तार पंक्तिः। ७, ९ जगत्यौ। ८ पञ्चपदा अति शक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Light Spiritual

    Meaning

    Keep the Aja’s back part in the western direction, keep the left part in the northern direction, keep the spine vertically straight in the upper direction, keep the lower part firm on the seat on ground, and keep the middle part in the middle position. (This is obviously a description of the body posture when the yajamana sits on the vedi or the yogi sits in proper posture for meditation. The word ‘dhruvayam’ is echoed in Patanjali’s description of the meditation posture in Yoga Sutras, 2, 46 where he says that the yogi’s seat should be “firm and comfortable: sthira sukham asanam.”

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    Translation

    Put its middle -portion in the west and the left portion in north . Put the core of the rice mess, in the zenith, its vigour in the nadir, and its middle part in the midspace.

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    Translation

    Advise Yajman to keep his back in the west and keep his left side in the north, you make him to keep his back-bone-straight upmost direction, Keep his belly down-wards in the direction below and keep middle part in the straight centre.

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    Translation

    Set the hinder part of the corpse to the West. Set the left flank to the North. Set the backbone upmost in the Zenith, and lay the belly downward in the Nadir, and the min-portion in mid-air between them.

    Footnote

    The deed body should be placed on the funeral pyre in the position mentioned in the verse. The general practice is different from the directions of this verse. Belly is set towards the Zenith, and back towards the Zenith.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(प्रतीच्याम्) अ० ३।२६।३। पश्चिमायाम् पश्चात् स्थितायाम् (दिशि) दिशायाम् (भसदम्) शॄदृभसोऽदिः। उ० १।१३०। इति भस भर्त्सनदीप्त्योः-अदि। कटिप्रदेशं जघनं वा (अस्य) अजस्य (धेहि) स्थापय (उत्तरस्याम्) उदीच्याम्। वामभागवर्तमानायाम् (उत्तरम्) वामभागस्थम् (पार्श्वम्) म० ७ (ऊर्ध्वायाम्) अ० ३।२६।६। उपरि वर्तमानायाम् [अजस्य] म० १। जीवात्मनः (अनूकम्) अनु+उच् समवाये घञर्थे कः। न्यङ्क्वादीनां च। पा० ७।३।५३। इति कुत्वम्। पृष्ठवंशम् (ध्रुवायाम्) अ० २।२६।४। स्थिरायाम्। अधस्तात् (पाजस्यम्) पाज इति बलनाम-निघ० २।९। पाजसे हितम्। बलकरमङ्गम्। उदरम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (मध्यतः) मध्यभागे (मध्यम्) शरीरमध्यभागम् (अस्य) निर्दिष्टस्य ॥

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