अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
ऋषिः - भृगुः
देवता - आज्यम्, अग्निः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
67
पृ॒ष्ठात्पृ॑थि॒व्या अ॒हम॒न्तरि॑क्ष॒मारु॑हम॒न्तरि॑क्षा॒द्दिव॒मारु॑हम्। दि॒वो नाक॑स्य पृ॒ष्ठात्स्व॑१र्ज्योति॑रगाम॒हम् ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒ष्ठात् । पृ॒थि॒व्या: । अ॒हम् । अ॒न्तरि॑क्षम् । आ । अ॒रु॒ह॒म् । अ॒न्तरि॑क्षात् । दिव॑म् । आ । अ॒रु॒ह॒म् । दि॒व: । नाक॑स्य । पृ॒ष्ठात् । स्व᳡: । ज्योति॑: । अ॒गा॒म् । अ॒हम् ॥१३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्। दिवो नाकस्य पृष्ठात्स्व१र्ज्योतिरगामहम् ॥
स्वर रहित पद पाठपृष्ठात् । पृथिव्या: । अहम् । अन्तरिक्षम् । आ । अरुहम् । अन्तरिक्षात् । दिवम् । आ । अरुहम् । दिव: । नाकस्य । पृष्ठात् । स्व: । ज्योति: । अगाम् । अहम् ॥१३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैं (पृथिव्याः) पृथिवी के (पृष्ठात्) पृष्ठ से (अन्तरिक्षम्) मध्य लोक, आकाश को (आ अरुहम्) चढ़ गया, (अन्तरिक्षात्) आकाश लोक से (दिवम्) सूर्य लोक को (आ अरुहम्) मैं चढ़ गया। (नाकस्य) सुख देने हारे (दिवः) प्रकाशमान सूर्य लोक के (पृष्ठात्) पृष्ठ से (अहम्) मैंने (स्वः) सुखस्वरूप और (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूप परमात्मा को (अगाम्) प्राप्त किया ॥३॥
भावार्थ
योगी पुरुष विद्याभ्यास और योगाभ्यास से पृथिवी, अन्तरिक्ष और सूर्य लोक में खोजता हुआ तुरीय अर्थात् इन तीनों से चौथे आनन्दघन, ज्योतिःस्वरूप परब्रह्म को प्राप्त करके ब्रह्मानन्द में मग्न हो जाता है ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजु० १७।६७। में है ॥
टिप्पणी
३−(पृष्ठात्) तलात् (पृथिव्याः) भूमेः (अहम्) विद्वान् योगी जनः (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (आ अरुहम्) रुह-लुङ्। आरूढवान् (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (दिवम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (दिवः) सूर्यस्य (नाकस्य) सुखनिमित्तस्य अन्धकारनाशकत्वात् (पृष्ठात्) उपरिभागात् (स्वः) सुखस्वरूपम् (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूपं परमात्मानम् (अगम्) इण् गतौ-लुङ्। आगमम्। प्राप्तवान् ॥
विषय
स्वर्ज्योति की प्राप्ति
पदार्थ
१. (पृथिव्याः पृष्ठात्) = पृथिवी के पृष्ठ से (अहम्) = मैं (अन्तरिक्षम् आरुहम्) = अन्तरिक्षलोक में आरोहण करूँ। जब मनुष्य भोगों से ऊपर उठकर रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होता है, तब वह अगला जन्म मर्त्यलोक में न लेकर अन्तरिक्षलोक-चन्द्रलोक में ही लेता है। चन्द्रलोकवासी व्यक्ति "पित' संज्ञावाले होते हैं। २. (अन्तरिक्षात्) = अन्तरिक्ष से भी ऊपर उठकर मैं (दिवम् आरुहम्) = धुलोक का आरोहण करूँ। ज्ञान-प्रधान जीवन बिताने पर देवयान से चलते हुए हम द्यलोक-सूर्यलोक में जन्म लेते हैं। यहाँ हमारा नाम देव हो जाता है। ३. यही स्वर्गलोक है। यहाँ दु:ख नहीं, अत: इसे 'नाकम्' [न अकम् अस्मिन्] कहते हैं। इस (नाकस्य पृष्ठात्) = स्वर्ग के पृष्ठरूप (दिवः) = धुलोक से भी ऊपर उठकर (अहम्) = मैं (स्व: ज्योति:) = स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को (अगाम) = प्राप्त होऊँ।
भावार्थ
'पृथिवी से अन्तरिक्ष में, अन्तरिक्ष से धुलोक में, स्वर्गपृष्ठ धुलोक से ब्रह्मलोक में'-यह है हमारा यात्रा-क्रम। इसे पूर्ण करते हुए हम ब्रह्म को प्राप्त हों।
भाषार्थ
(पृथिव्याः पृष्ठतः) पृथिवी की पीठ से [योग के अङ्गों के अनुष्ठान समय सिद्ध अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि में परिपूर्ण; (दयानन्दः, यजुर्वेद १७।६७) (अहम्) मैं, (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (आ अरुहम्) आरूढ़ हो गया हूँ, (अन्तरिक्षात्) और अंतरिक्ष से (दिवम्) द्युलोक को (आ अरुहम्) मैं आरूढ़ हो गया हूँ। (नाकस्य) सुखदायक (दिवः पृष्ठतः) द्युलोक की पीठ से (स्वः) सुखविशेषरूपी (ज्योतिः) ज्योति पर (अहम्) मैं (अगाम्) पहुँच गया हूँ।
टिप्पणी
[ज्योति:= सम्भवतः परमेश्वरीय ज्योतिः। "जब मनुष्य अपनी आत्मा के साथ परमात्मा के योग को प्राप्त होता है तब अणिमादि सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। उनके पीछे कहीं भी न रुकनेवाली गति से अभीष्ट स्थानों को जा सकता है, अन्यथा नहीं" (यजु० १७।९७, दयानन्द)।] [मन्त्र ३ में 'आरोहण' का वर्णन, परमेश्वर-साक्षात्कारी, अज नामक व्यक्ति द्वारा हुआ है, जो कि योग सिद्धि को प्राप्त कर, सशरीर, आकाशगमन (योग ३।४२) करता है, या शारीरिक अङ्गरूपी पृथिवी अर्थात् पाद आदि से, सुषुम्ना नाड़ी द्वारा, आरोहण कर, हृदयस्थ तथा ब्रह्मरन्ध्र से पार शिरस्थ परमेश्वरीय ज्योति को प्राप्त कर चुका है।]
विषय
‘अज’ प्रजापति का स्वरूपवर्णन।
भावार्थ
(पृथिव्याः पृष्ठात्) पृथिवी की पीठ से (अहम्) मैं (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष लोक को (आरुहम्) चढ़ जाऊं और (अन्तरिक्षाद्) अन्तरिक्ष लोक से (दिवम्) द्यौलोक को (आरुहम्) चढ़ जाऊं। (दिवः) प्रकाशस्वरूप (नाकस्य) उस सुखमय लोक के (पृष्ठात्) पृष्ठ से (अहम्) मैं (स्वः ज्योतिः) सुख, प्रकाश आनन्दमय उस ज्योति=परम प्रकाश को (अगाम्) प्राप्त हो जाऊं । पृथिवी, अन्तरिक्ष, दिव और स्वः ये चार योग की उत्तरोत्तर उत्कृष्ट भूमियां हैं। “विक्षिप्त” चित्त भूमि पृथिवी है, “सम्प्रज्ञात” अन्तरिक्ष, “असम्प्रज्ञात” दिव् और “कैवल्यपद” स्वः है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। आाज्यमग्निर्वा देवता। १, २, ६ त्रिष्टुभः। २, ४ अनुष्टुभौ,३ प्रस्तार पंक्तिः। ७, ९ जगत्यौ। ८ पञ्चपदा अति शक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Light Spiritual
Meaning
From the highest vedi of earthly yajna, I rise to the sky, from the sky I rise to the regions of light, from the top of heavenly joy of the regions of light I have risen to the light and bliss of Divinity. (This mantra describes the yogi’s ascent from the heights of attainment on earth, through the skies and solar regions to the state of Turiya, absolute bliss in the Kaivalya state of pure Being. The state of the ascent of humanity to Divinity, or alternatively, the descent of Divinity to humanity is described in Rgveda 8, 44, 23.)
Translation
From the back of the earth, I have ascended to the mid space. From the mid-space, I have ascended to the heaven. From the top of the heaven, the sorrowless world, I have reached the world of light.(Yv. XVII.67- Variation)
Translation
From the surface of the earth I mount: (a) firmament, from firmament I ascend to heavenly region and from the lustrous heavenly region I attain the highest state of light.(b) From gross material plain I rise to the rarefied intellectual plain, from mental plain I ascend to gleaming spiritual plain and from the lustrous spiritual plain . I mount to the highest self-effulgent plain of universal spirit.
Translation
Through yoga from physical force I rise higher to mental force; from mental force I rise higher to spiritual force, from spiritual force I rise higher to God, the Blissful light.
Footnote
See Yajur, 17-61.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(पृष्ठात्) तलात् (पृथिव्याः) भूमेः (अहम्) विद्वान् योगी जनः (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (आ अरुहम्) रुह-लुङ्। आरूढवान् (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (दिवम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (दिवः) सूर्यस्य (नाकस्य) सुखनिमित्तस्य अन्धकारनाशकत्वात् (पृष्ठात्) उपरिभागात् (स्वः) सुखस्वरूपम् (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूपं परमात्मानम् (अगम्) इण् गतौ-लुङ्। आगमम्। प्राप्तवान् ॥
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