अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
ऋषिः - भृगुः
देवता - आज्यम्, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
65
अग्ने॒ प्रेहि॑ प्रथ॒मो दे॒वता॑नां॒ चक्षु॑र्दे॒वाना॑मु॒त मानु॑षाणाम्। इय॑क्षमाणा॒ भृगु॑भिः स॒जोषाः॒ स्व॑र्यन्तु॒ यज॑मानाः स्व॒स्ति ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । प्र । इ॒हि॒ । प्र॒थ॒म: । दे॒वता॑नाम् । चक्षु॑: । दे॒वाना॑म् । उ॒त । मानु॑षाणाम् । इय॑क्षमाणा: । भृगु॑ऽभि: । स॒ऽजोषा॑: । स्व᳡: । य॒न्तु॒ । यज॑माना: स्व॒स्ति ॥१४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने प्रेहि प्रथमो देवतानां चक्षुर्देवानामुत मानुषाणाम्। इयक्षमाणा भृगुभिः सजोषाः स्वर्यन्तु यजमानाः स्वस्ति ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । प्र । इहि । प्रथम: । देवतानाम् । चक्षु: । देवानाम् । उत । मानुषाणाम् । इयक्षमाणा: । भृगुऽभि: । सऽजोषा: । स्व: । यन्तु । यजमाना: स्वस्ति ॥१४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (प्रेहि) प्राप्त हो, तू (देवतानाम्) सब विद्वानों में (प्रथमः) पहिला, और (देवानाम्) सूर्य आदि लोकों का (उत) और भी (मानुषाणाम्) मनुष्य जातियों का (चक्षुः) नेत्र [के समान देखनेवाला] है। (इयक्षमाणाः) संगति चाहनेवाले, (भृगुभिः) परिपक्व विज्ञानी वेदज्ञ ब्राह्मणों के साथ (सजोषाः) एकसी प्रीति करते हुए, (यजमानाः) दानशील यजमान लोग (स्वः) सुखस्वरूप परब्रह्म और (स्वस्ति) कल्याण को (यन्तु) प्राप्त होवे ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा सबका आदि गुरु है, वही सबका साक्षी और नियन्ता है, पुरुषार्थी सदाचारी पुरुष विज्ञानी महात्माओं के सत्सङ्ग से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति करके परमगति प्राप्त करें ॥५॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-अ० १७।६९ ॥
टिप्पणी
५−(अग्ने) हे सर्वज्ञ परमात्मन् ! (प्रेहि) प्रगच्छ। अस्मान् प्राप्नुहि (प्रथमः) आदिमः। मुख्यः (देवतानाम्) देव-स्वार्थे तल्। देवानां विदुषाम् (चक्षुः) नेत्रवद् द्रष्टा (देवानाम्) सूर्यादिलोकानाम् (उत) अपि च (मानुषाणाम्) मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च। पा० ४।१।१६१। इति मनु-अञ्, षुगागमः। मनुष्यजातीनाम् (इयक्षमाणः) यजेः सन्। सन्यतः। पा० ७।४।७९। इति अभ्यासाकारस्य इकारः, यलोपश्छान्दसः। यियक्षमाणाः। यष्टुं संगन्तुमिच्छन्तः (भृगुभिः) अ० २।५।३। परिपक्वविज्ञानैः। अनूचानब्राह्मणैः। (सजोषाः) जुषी प्रीतिसेवनयोः-घञ्। समानस्य सभावः। समानप्रीतयः। प्रीतिमन्तः (स्वः) सुखस्वरूपं परब्रह्म (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (यजमानाः) यज शानच्। दानशीलाः (स्वस्ति) कल्याणं च ॥
विषय
'भृगुभिः सजोषाः' यजमानः
पदार्थ
१. हे (अग्ने) परमात्मान् ! (प्रेहि) = आप हमें प्राप्त होओं - हम आपको प्राप्त सकें | आप ही (देवतानामं प्रथमाः) = सब देवों में प्रथम (मुख्य) हैं | आपसो ही तो सब देव देवत्व को प्राप्त करते हैं | आप (देवानां चक्षुः) = सूर्यादि सब ज्योतिर्मय पिंडों के प्रकाशक हैं , (उत्त) = और (मानुषाणाम्) = विचारशील पुरषों के लिए भी बुद्धिप्रधान द्वारा प्रकाश प्राप्त करनेवाले हैं -(बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि) = | २. (इयक्षमाणा:) = यज्ञों कि कामनावाले , ('भृगुभिः सजोषाः') = ज्ञानपरिपक्व लोगों के साथ समान रूप से प्रीतिवाले (यजमानाः) = यज्ञशील पुरुष (स्वस्ति) = कल्याणपूर्वक (स्वः यन्तु) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योतिस्वरूप प्रभु को प्राप्त करें।
भावार्थ
प्रभु ही सब देवों के अग्रणी और सूर्यादि के प्रकाशक हैं, बे ही बुद्धिमानों की बुद्धि है | यज्ञ की कमनावले, ज्ञानियों के सम्पर्क में रहनेवाले यज्ञशील पुरुष कल्याणपूर्वक प्रभु को प्राप्त करें।
भाषार्थ
(अग्नि) हे अग्नि नामक परमेश्वर, या सर्वाग्रणी१ परमेश्वर ! (प्रेहि) तू आगे बढ़, तू (देवतानाम्, प्रथमः) देवों में प्रथम देव है, तू (देवानाम्) देवों की (उत) तथा (मानुषाणाम्) मनुष्यों की (चक्षुः) आंख है, उन्हें मार्ग दर्शाता है। (इयक्षमाणा:) यज्ञ करने की इच्छावाले (यजमानाः) यजमान, (भृगुभि:, सजोषाः) परिपक्वज्ञानवालों के साथ समान प्रीतिवाले हुए (स्व:) सुखविशेष या स्वर्ग को (स्वस्ति यन्तु) क्षेमपूर्वक जायें, या प्राप्त हों।
टिप्पणी
[सूर्य आदि देवों के चक्षु२ हैं, उनका मार्गदर्शन है परमेश्वर। अग्नि के अभाव में अन्धकार होता है, और मार्ग नहीं दीखता, अतः मार्ग दर्शाने के कारण परमेश्वर को अग्नि कहा है। मनुष्यों का भी वह चक्षु है, यतः वेदज्ञानाग्नि द्वारा परमेश्वर उन्हें ज्ञान-चक्षु प्रदान करता है। भृगुभि:= भ्रस्ज पाके (तुदादिः)। सजोषा:=जुषी प्रीतिसेवनयोः (तुदादि:)।] [१. अग्निः="अग्रणीर्भवति" (निरुक्त ७।४।१४)। २. "चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः" (अथर्व० १३।२।३५)।]
विषय
‘अज’ प्रजापति का स्वरूपवर्णन।
भावार्थ
हे अग्ने ! परमात्मन् ! आप (देवतानां) समस्त दिव्य गुण वाले, महत् आदि विशाल वैकारिक पदार्थों और समस्त विद्वानों से (प्रथमः) पूर्व विद्यमान, सब से श्रेष्ठ हैं। आप (प्रेहि) हमारे हृदय में प्रकट होइये। आप (देवनाम्) देवों और विद्वानों के (उत) और (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (चक्षुः) यथार्थ प्रकाशक हैं। (यजमानाः) यज्ञ करने हारे, पुण्यात्मा लोग (भृगुभिः) पापों को भून डालने वाले या परिपक्व ज्ञान सम्पन्न, वेद के विद्वानों के साथ (इयक्षमाणाः) यज्ञों का सम्पादन करते हुए (सजोषाः) परस्पर सामान भाव से प्रीतिपूर्वक रहते हुए (स्वस्ति) अपने खल्याण के लिये (स्वः यन्तु) स्वर्ग लोक में और सुख का भोग करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। आाज्यमग्निर्वा देवता। १, २, ६ त्रिष्टुभः। २, ४ अनुष्टुभौ,३ प्रस्तार पंक्तिः। ७, ९ जगत्यौ। ८ पञ्चपदा अति शक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Light Spiritual
Meaning
Come Agni, be with us, first, last and eternal, first of the divinities, light of divines such as the sun, and light of the spirit of humanity. May the yajamanas, loving and joining in company with veteran sages and scholars, rise to divine bliss. May there be good and all round well being with them.
Translation
O adorable Lord, first and foremost of the bounties of Nature, may you come here. You are the vision of men, as well as of the enlightened ones, performing sacrifice and accordant with the ascetics, may the sacrificers reach the world of light safe and secure.
Translation
The worldly fire is the first of all the physical elements and it is the eye, the means of seeing for the learned and the ordinary men. Let it come into our Knowledge. The performers of the Yajnas, accordant in their words, thoughts and deed, concordant and reciprocal in their dealings with the men of austerity or the priests of the Yajna, offering oblations in blazing fire attain salvation safely.
Translation
O God, Thou art Foremost amongst the learned and all divine objects, exhibit Thyself in our heart. Thou art the Eye of men and the forces of nature. May the noble sacrificers, in the company of men of mature Knowledge, performing the yajnas, living together happily, attain to God and prosperity.
Footnote
See Yajur, 17-69. Eye: Exhibitor. Bhrigu is not the name of a Rishi as explained by Griffith. The word means a man who has wiped out all sins and impurities and is a man of mature knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(अग्ने) हे सर्वज्ञ परमात्मन् ! (प्रेहि) प्रगच्छ। अस्मान् प्राप्नुहि (प्रथमः) आदिमः। मुख्यः (देवतानाम्) देव-स्वार्थे तल्। देवानां विदुषाम् (चक्षुः) नेत्रवद् द्रष्टा (देवानाम्) सूर्यादिलोकानाम् (उत) अपि च (मानुषाणाम्) मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च। पा० ४।१।१६१। इति मनु-अञ्, षुगागमः। मनुष्यजातीनाम् (इयक्षमाणः) यजेः सन्। सन्यतः। पा० ७।४।७९। इति अभ्यासाकारस्य इकारः, यलोपश्छान्दसः। यियक्षमाणाः। यष्टुं संगन्तुमिच्छन्तः (भृगुभिः) अ० २।५।३। परिपक्वविज्ञानैः। अनूचानब्राह्मणैः। (सजोषाः) जुषी प्रीतिसेवनयोः-घञ्। समानस्य सभावः। समानप्रीतयः। प्रीतिमन्तः (स्वः) सुखस्वरूपं परब्रह्म (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (यजमानाः) यज शानच्। दानशीलाः (स्वस्ति) कल्याणं च ॥
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