अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 7
ऋषिः - भृगुः
देवता - आज्यम्, अग्निः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
70
पञ्चौ॑दनं प॒ञ्चभि॑र॒ङ्गुलि॑भि॒र्दर्व्योद्ध॑र पञ्च॒धैतमो॑द॒नम्। प्राच्यां॑ दि॒शि शिरो॑ अ॒जस्य॑ धेहि॒ दक्षि॑णायां दि॒शि दक्षि॑णं धेहि पा॒र्श्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठपञ्च॑ऽओदनम् । प॒ञ्चऽभि॑: । अ॒ङ्गुलि॑ऽभि: । दर्व्या॑ । उत् । ह॒र॒ । प॒ञ्च॒ऽधा । ए॒तम् । ओ॒द॒नम् । प्राच्या॑म् । दि॒शि । शिर॑: । अ॒जस्य॑ । धे॒हि॒ । दक्षि॑णायाम् । दि॒शि । दक्षि॑णम् । धे॒हि॒ । पा॒र्श्वम् ॥१४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्चौदनं पञ्चभिरङ्गुलिभिर्दर्व्योद्धर पञ्चधैतमोदनम्। प्राच्यां दिशि शिरो अजस्य धेहि दक्षिणायां दिशि दक्षिणं धेहि पार्श्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठपञ्चऽओदनम् । पञ्चऽभि: । अङ्गुलिऽभि: । दर्व्या । उत् । हर । पञ्चऽधा । एतम् । ओदनम् । प्राच्याम् । दिशि । शिर: । अजस्य । धेहि । दक्षिणायाम् । दिशि । दक्षिणम् । धेहि । पार्श्वम् ॥१४.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(एतम्) इस (पञ्चधा) पाँच प्रकार पर (पञ्चौदनम्) पाँच भूतों से सींचे हुए (ओदनम्) वृद्धि करनेवाले आत्मा को (पञ्चभिः) विस्तृत (अङ्गुलिभिः) चेष्टाओंके साथ (दर्व्या) विदारण वा पृथक् करण शक्ति से (उद्धर=उत्हर) ऊपर ला, (प्राच्याम्) अपने से पूर्व वा सन्मुख (दिशि) दिशा में (अजस्य) जीवात्मा का (शिरः) शिर (धेहि) धर, (दक्षिणायाम् दिशि) दक्षिण दिशा में (दक्षिणम्) दाहिने (पार्श्वम्) कक्षा के नीचे भाग को (धेहि) धर ॥७॥
भावार्थ
पञ्च भूत निर्मित स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीरवाला आत्मा इन्द्रियों सहित रहता है। योगी विवेक दृष्टि द्वारा, आत्मा को स्थूल शरीर से पृथक् करे, और आत्मा के सूक्ष्म अवयवों को मन्त्र ७ व ८ के अनुसार स्थापित करके मन्त्र ९ के अनुसार मोक्ष फल प्राप्त करे ॥७॥
टिप्पणी
७−(पञ्चौदनम्) कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१५६। इति पचि व्यक्तीकरणे विस्तारे च-कनिन्। उन्देर्नलोपश्च। उ० २।७६। इति उन्दी क्लेदने-युच्। ओदनो मेघः-निघ० १।१०। ओदनमुदकदानं मेघम्-निरु० ६।३४। पञ्चभिर्भूतैः ओदनः सेचन यस्य तम् (पञ्चभिः) विस्तृताभिः (अङ्गुलिभिः) ऋतन्यञ्जि०। उ० ४।२। इति अङ्ग पदे=चेष्टायाम्-उलिप्रत्ययः। अङ्गुलयः कस्मादग्रगामिन्यो भवन्तीति वाग्रगालिन्यो भवन्तीति वाग्रकारिण्यो भवन्तीति वाङ्कना भवन्तीति वाञ्चना भवन्तीति वापि वाभ्यञ्जनादेव स्युः। निरु० ३।८। चेष्टाभिः (दर्व्या) वृदॄभ्यां विन् उ० ४।५३। इति दॄ विदारणे विन्, ङीप्। विदारणशक्त्या। वियोगशक्त्या (उद् हर) उद्धृत्य स्थापय (पञ्चधा) पञ्चप्रकारेण विभज्य (एतम्) आ-इण्-क्त। आगतं दृश्यमानं वा (ओदनम्) व्याख्यातम्। सेचनसमर्थं यद्वा, अन्नवद् वृद्धिकरम् आत्मानम् (प्राच्याम्) अ० ३।२६।१। स्वस्थानात् पूर्वस्याम्। स्वाभिमुखीभूतायाम् (दिशि) दिशायाम् (शिरः) अ० २।२५।२। मस्तकम् (अजस्य) म० १। अजनशीलस्य जीवात्मनः (धेहि) धर (दक्षिणायाम्) दक्षिणस्याम् (पार्श्वम्) स्पृशेः श्वण्शुनौ पृ च। उ० ५।२७। इति स्पृश संपर्के-श्वण्, धातोः पृ इत्यादेशः। कक्षयोरधोभागम् ॥
विषय
पञ्चौदन
पदार्थ
१. जैसे ओदन [भात] अंगुलियों व दवी [कड़छी] से निकाला जाता है, उसी प्रकार ज्ञान का ओदन [भोजन] भी अंगुलियों से [अगि गती], अर्थात् गतिशीलता से तथा दीं से अर्थात् [द विदारणे] वासनाओं के विदारण से उद्धृत हुआ करता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाला यह ओदन 'पञ्चौदन' कहलाता है। प्रभु जीव से कहते हैं कि तू (पञ्चभिः अंगुलिभिः) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की सम्यग् गतियों के द्वारा तथा (दर्व्या) = वासना-विदारण के द्वारा (पञ्चधा) = पाँच भागों में बँटे हुए 'शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध' भेद से पाँच प्रकार के एतं (ओदनम्) = इस जान को जोकि 'आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी' रूप पाँचों भूतों का ज्ञान होने से (पञ्चौदनम्) = पञ्चौदन कहलता है, उस ज्ञान को (उद्धर) = कुएँ से पानी प्राप्त करने की भांति आचार्यों से प्राप्त कर । २. ज्ञान को प्राप्त करता हुआ तू (अजस्य) = [अज गतिक्षेपणयो:] गति के द्वारा सब बुराइयों को परे फेंकनेवाले उस आत्मा के (शिर:) = शरीरस्थ सिर [मस्तिष्क] को (प्राच्यां दिशि धेहि)-प्राची दिशा में स्थापित कर । यह ज्ञान-प्राप्ति के कार्य में निरन्तर प्रगतिशील [प्र अञ्च] हो। मस्तिष्क का प्राची में स्थापन यही है कि यह ज्ञान-प्राप्ति में निरन्तर आगे और आगे बढ़ता चले। २. इस अज के (दक्षिण पाश्वम्) = दाहिने पासे को (दक्षिणायां दिशि) = दक्षिण दिशा में धेहि-स्थापित कर। इस अज के शरीर का यह दक्षिण हस्त कार्यों को दाक्षिण्य से करनेवाला हो। ज्ञानी पुरुष को कर्मों को कुशलता से करना ही शोभा देता है।
भावार्थ
पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की ठीक गतियों व वासना-विनाश के द्वारा हम आचार्यों से पञ्चभूतात्मक संसार का ज्ञान प्राप्त करें। मस्तिष्क को जान-प्राप्ति के मार्ग में निरन्तर गतिबाला बनाएँ तथा हमारा दक्षिण हस्त दाक्षिण्य से कर्म करनेवाला हो।
भाषार्थ
(दर्व्या) दर्वी [कड़छी] द्वारा जैसे हविष्यान्न को उद्धृत किया जाता है वैसे (पञ्चभिः अङ्गुलिभिः) पाँच अङ्गुलियों सहित प्रत्येक बाहु द्वारा, (पञ्चौदनम्) पाँच भोगोंवाले, (पञ्चधा) पंचविध (ओदनम्१) भोग साधनोंवाले (एतम्) अज-सम्बन्धी इस मृतशरीर को (उद्धर) तू उद्धृत कर, उठा, और (प्राच्यां दिशि) पूर्वदिशा में (अजस्य) अज के सिर को (धेहि) [चिता पर] स्थापित कर तथा (दक्षिणायाम् दिशि) दक्षिण दिशा में (दक्षिणम् पार्श्व) दाहिने पार्श्व को (धेहि) स्थापित कर ।
टिप्पणी
[अज अर्थात् जो स्वरूप से उत्पन्न नहीं होता, परन्तु कर्मवश होकर जन्म ग्रहण करता है, वह जीवात्मा मुक्त होकर जब शरीर त्याग कर देता है, तब अन्त्येष्टि के लिए उस शरीर की स्थापना चिता पर किस प्रकार करनी चाहिए, इसकी विधि मन्त्र ७, ८ में दर्शाई है। अन्त्येष्टि कर्म से पूर्व यह देख लेना चाहिए कि शव के सभी अङ्ग सम्पूर्ण हैं, ताकि सम्पूर्ण अङ्गों वाला जीवात्मा मोक्ष धाम में जाय।] तथा— [१. ओदन है कारण और मृतशरीर है कार्य। ओदन वैदिक अन्न है। इसके भक्षण से शरीर निर्मित होता है, अतः कार्य में कारण-पद प्रयुक्त हुआ है। यथा-"पृथिव्या शरीरम्", तथा "पृथिवी शरीरम्” (अथर्व० ५।१०।८; ५।९।७) में शरीररूपी कार्य में पृथिवी पद का प्रयोग हुआ है। पृथिवी है कारण और शरीर है कार्य। आंग्ल भाषा में भी कहा है कि "Dust thou Art" तुम मिट्टी हो।]
विषय
‘अज’ प्रजापति का स्वरूपवर्णन।
भावार्थ
(पञ्चोदनम्) पांच प्रकार के विषयों का ज्ञान—जिसके ५ प्रकार के भोग हैं, (पंचभिरंगुलिभिः) और जो ५ प्रकार की कर्मेन्द्रियों से सम्पन्न है, उसके (पंचधा एतं ओदनम्) पांच प्रकार के इस ज्ञानमय भोग को (दर्व्या) अज्ञान-विदारक आत्मविज्ञान रूप साधन द्वारा (उद्हर) उस जीवात्मा से निकाल दे। और जब उसकी मृत्यु होजाय तब पुनर्जन्म न लेने वाले अर्थात् मुक्त होने वालों के (शिरः) सिर को गढ़ा सा खोद कर, (प्राच्यां दिशि घेहि) पूर्व दिशा में रखना चाहिये, (दक्षिणं पार्श्वम्) और दाहिने पार्श्व को (दक्षिणायां दिशि धेहि) दक्षिण दिशा में रखना चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। आाज्यमग्निर्वा देवता। १, २, ६ त्रिष्टुभः। २, ४ अनुष्टुभौ,३ प्रस्तार पंक्तिः। ७, ९ जगत्यौ। ८ पञ्चपदा अति शक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Light Spiritual
Meaning
Hold the panchaudana, havi prepared from five grains and milk, curd, ghrta, rock sugar and honey, in a ladle with five fingers of the hand, raise it to offer into the sacred fire. Keep the Aja’s, unborn soul’s, head, i.e., intelligence in the east direction, the right part in the southern direction. (Aja here does not mean a goat, it means ‘the man in the posture of meditation and prayer.’ ‘Panchandana’ havi is love, faith, knowledge, prayer and communion and all other experience gathered through five senses, mind and intelligence. The mantra means the yajna of self-surrender to Divinity).
Translation
Take this rice-mess of five constituents (pañcan dana) up with the ladle with your five fingers and divide this rice mess into five portions. Put the top part of this rice in the east, put its right portion in the south.
Translation
O yajna-priest! With the spoon held with five fingers keep safe on the Yajna Vedi this cooked rice (Rice preparation for the purpose of oblations) which is Prepared by five methods and which is the compound of five ingredients of cereals. You advice the Aja, the performer of Yajna to keep his Shirah, the forehead or countenance in the east by seating him in the west of the Vedi) and the right side of the body in the eastern direction. [N.B. The performer of the Yajna should take his seat in the west of the Yajna Vedi keeping his face in the east direction.]
Translation
Elevate, through ignorance killing force, the soul, a prey to five passions, equipped with five organs of action and surrounded by five elements. After death place on the pyre, the head of the body of the emancipated soul to the east, and its right side to the south.
Footnote
Five passions: Lust, Anger, Avarice, Infatuation and Pride. Five organs of action are the five fingers of the soul, with which it performs various deeds. The soul is surrounded by five elements: Earth, Water, Air, Fire, Space.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(पञ्चौदनम्) कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१५६। इति पचि व्यक्तीकरणे विस्तारे च-कनिन्। उन्देर्नलोपश्च। उ० २।७६। इति उन्दी क्लेदने-युच्। ओदनो मेघः-निघ० १।१०। ओदनमुदकदानं मेघम्-निरु० ६।३४। पञ्चभिर्भूतैः ओदनः सेचन यस्य तम् (पञ्चभिः) विस्तृताभिः (अङ्गुलिभिः) ऋतन्यञ्जि०। उ० ४।२। इति अङ्ग पदे=चेष्टायाम्-उलिप्रत्ययः। अङ्गुलयः कस्मादग्रगामिन्यो भवन्तीति वाग्रगालिन्यो भवन्तीति वाग्रकारिण्यो भवन्तीति वाङ्कना भवन्तीति वाञ्चना भवन्तीति वापि वाभ्यञ्जनादेव स्युः। निरु० ३।८। चेष्टाभिः (दर्व्या) वृदॄभ्यां विन् उ० ४।५३। इति दॄ विदारणे विन्, ङीप्। विदारणशक्त्या। वियोगशक्त्या (उद् हर) उद्धृत्य स्थापय (पञ्चधा) पञ्चप्रकारेण विभज्य (एतम्) आ-इण्-क्त। आगतं दृश्यमानं वा (ओदनम्) व्याख्यातम्। सेचनसमर्थं यद्वा, अन्नवद् वृद्धिकरम् आत्मानम् (प्राच्याम्) अ० ३।२६।१। स्वस्थानात् पूर्वस्याम्। स्वाभिमुखीभूतायाम् (दिशि) दिशायाम् (शिरः) अ० २।२५।२। मस्तकम् (अजस्य) म० १। अजनशीलस्य जीवात्मनः (धेहि) धर (दक्षिणायाम्) दक्षिणस्याम् (पार्श्वम्) स्पृशेः श्वण्शुनौ पृ च। उ० ५।२७। इति स्पृश संपर्के-श्वण्, धातोः पृ इत्यादेशः। कक्षयोरधोभागम् ॥
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