अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सत्यानृतसमीक्षक सूक्त
ये ते॒ पाशा॑ वरुण स॒प्तस॑प्त त्रे॒धा तिष्ठ॑न्ति॒ विषि॑ता॒ रुष॑न्तः। छि॒नन्तु॒ सर्वे॒ अनृ॑तं॒ वद॑न्तं॒ यः स॑त्यवा॒द्यति॒ तं सृ॑जन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठये । ते॒ । पाशा॑: । व॒रु॒ण॒ । स॒प्तऽस॑प्त । त्रे॒धा। तिष्ठ॑न्ति । विऽसि॑ता: । रुश॑न्त: । छि॒नन्तु॑ । सर्वे॑ । अनृ॑तम् । वद॑न्तम् । य: । स॒त्य॒ऽवा॒दी । अति॑ । तम् । सृ॒ज॒न्तु॒ ॥१६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
ये ते पाशा वरुण सप्तसप्त त्रेधा तिष्ठन्ति विषिता रुषन्तः। छिनन्तु सर्वे अनृतं वदन्तं यः सत्यवाद्यति तं सृजन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठये । ते । पाशा: । वरुण । सप्तऽसप्त । त्रेधा। तिष्ठन्ति । विऽसिता: । रुशन्त: । छिनन्तु । सर्वे । अनृतम् । वदन्तम् । य: । सत्यऽवादी । अति । तम् । सृजन्तु ॥१६.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
विषय - सप्त सप्त त्रेधा स्थित पाश
पदार्थ -
१. हे (वरुण) = पाप-निवारक प्रभो ! (ये) = जो (ते) = आपके (पाशा:) = पापियों के बन्धनकारक जाल (सप्तसप्त) = "शरीर, मन, बुद्धि, चित्त, ज्ञानेन्द्रिय व प्राणों में समवेत (त्रेधा) = उत्तम, मध्यम व अधम भेद से तीन प्रकारों में बंटे हुए, शरीर की सात धातुओं में व्यास होनेवाले 'वात, पित्त व कफ़' के त्रिविध विकारों से उत्पन्न हुए-हुए ये रोगरूप पाश (तिष्ठन्ति) = स्थित है। ये सब पाश (विषिता:) = विशेषरूप से बद्ध हैं। इनका सरलता से टूट जाना सम्भव नहीं। (रुशान्त:) = ये पाश अतिशयेन पीड़ित करनेवाले हैं। २. ये (सर्वे) = सब पाश (अनृतं वदन्तम्) = असत्य बोलनेवाले को (छिनन्तु) = छिन्न करनेवाले हों। (यः सत्यवाद्यत्ति) = जो सत्य बोलनेवाला है (तम्) = उसे (अतिसृजना) = ये अतिसृष्ट करें-छोड़ दें-सत्यवादी के लिए ये बन्धनकारक न हो।
भावार्थ -
वरुण के पश अन्तवादी को छिन्न करते हैं, सत्यवादी के लिए ये बन्धनकारक नहीं होते।
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