अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वरुणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यानृतसमीक्षक सूक्त
बृ॒हन्नेषामधिष्ठा॒ता अ॑न्ति॒कादि॑व पश्यति। यस्ता॒यन्मन्य॑ते॒ चर॒न्त्सर्वं॑ दे॒वा इ॒दं वि॑दुः ॥
स्वर सहित पद पाठबृ॒हन् । ए॒षा॒म् । अ॒धि॒ऽस्था॒ता । अ॒न्ति॒कात्ऽइ॑व । प॒श्य॒ति॒ । य: । स्ता॒यत् । मन्य॑ते । चर॑न् । सर्व॑म् । दे॒वा: । इ॒दम् । वि॒दु॒: ॥१६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहन्नेषामधिष्ठाता अन्तिकादिव पश्यति। यस्तायन्मन्यते चरन्त्सर्वं देवा इदं विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठबृहन् । एषाम् । अधिऽस्थाता । अन्तिकात्ऽइव । पश्यति । य: । स्तायत् । मन्यते । चरन् । सर्वम् । देवा: । इदम् । विदु: ॥१६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
विषय - वह महान् अधिष्ठाता
पदार्थ -
१. (बृहन्) = वह महान् वरुण (एषाम्) = इन सब लोकों व प्राणियों का (अधिष्ठाता) = नियन्ता होता हुआ इन सब प्राणियों से किये जाते हुए कर्मों को (अन्तिकात् इव) = बहुत समीपता से ही (पश्यति) = देख रहा है। प्रभु से किसी का कार्य छिपा हुआ नहीं है। २. (यः) = वे प्रभु (तायत्) = सातत्येन वर्तमान स्थित वस्तु को तथा (चरन्) = चरणशील नश्वर वस्तु को (मन्यते) = जानते हैं-स्थावर जंगमरूप यह सम्पूर्ण जगत् प्रभु के ज्ञान का विषय हो रहा है। जो (इदं सर्वम्) = इस सारी बात को कि 'प्रभु सब-कुछ देख रहे हैं, प्रभु के ज्ञान से कुछ भी परे नहीं' (विदुः) = जानते हैं, वे (देवा:) = देव बनते हैं। प्रभु की सर्वज्ञता व सर्वगष्टत्व को समझते हुए ये पापवृत्ति से दूर रहते हैं और परिणामत: देववृत्ति के बनते हैं इनके जीवन में असुरभाव नहीं पनप पाते।
भावार्थ -
वे महान् अधिष्ठाता प्रभु सबको समीपता से देख रहे हैं। स्थावर-जंगम सम्पूर्ण जगत् प्रभु के ज्ञान का विषय बन रहा है। इस बात को समझनेवाले लोग देववृत्ति के बनते हैं।
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