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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सत्यानृतसमीक्षक सूक्त

    उ॒तेयं भूमि॒र्वरु॑णस्य॒ राज्ञ॑ उ॒तासौ द्यौर्बृ॑ह॒ती दूरेअन्ता। उ॒तो स॑मु॒द्रौ वरु॑णस्य कु॒क्षी उ॒तास्मिन्नल्प॑ उद॒के निली॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । इ॒यम् । भूमि॑: । वरु॑णस्य । राज्ञ॑: । उ॒त । अ॒सौ । द्यौ: । बृ॒ह॒ती । दू॒रेऽअ॑न्ता । उ॒तो इति॑ । स॒मु॒द्रौ । वरु॑णस्य । कु॒क्षी इति॑ । उ॒त । अ॒स्मिन् । अल्पे॑ । उ॒द॒के । निऽली॑न: ॥१६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतेयं भूमिर्वरुणस्य राज्ञ उतासौ द्यौर्बृहती दूरेअन्ता। उतो समुद्रौ वरुणस्य कुक्षी उतास्मिन्नल्प उदके निलीनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । इयम् । भूमि: । वरुणस्य । राज्ञ: । उत । असौ । द्यौ: । बृहती । दूरेऽअन्ता । उतो इति । समुद्रौ । वरुणस्य । कुक्षी इति । उत । अस्मिन् । अल्पे । उदके । निऽलीन: ॥१६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (इयम्) = सबका अधिष्ठान बनी हुई यह (भूमिः) = पृथिवी (उत) = भी [अपि-सा०] (राज्ञः) = उस शासक (वरुणस्य) = पाप-निवारक प्रभु के वश में हैं। (उत) = [अपि च] और वह दूर स्थित (बृहती) = विशाल (दूरे अन्ता) = दूर-से-दूर व समीप-से-समीप वर्तमान (द्यौः) = धुलोक [आकाश] भी उस वरुण के वश में है। २. (उत उ)-और निश्चय से (समुद्रौ) = ये पूर्व और पश्चिम के समुद्र (वरुणस्य) = उस प्रभु के (कुक्षी) = दक्षिण व उत्तर पावं ही हैं। ये विराट् प्रभु की कुक्षियों के समान हैं, (उत) = और (अस्मिन्) = इस (अल्पे उदके) -=तटाक, हृद [तालाब] आदिगत अल्प जलों में भी वे प्रभु (निलीनः) = अन्तर्हित होकर रह रहे हैं।

    भावार्थ -

    यह पृथिवी व धुलोक दोनों ही प्रभु के वश में हैं। पूर्व व पश्चिम समुद्र प्रभु की कुक्षियों के तुल्य हैं। छोटे-छोटे तालाबों के जलों में भी प्रभु अन्तर्हितरूपेण रह रहे हैं।

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