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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सत्यानृतसमीक्षक सूक्त

    यस्तिष्ठ॑ति॒ चर॑ति॒ यश्च॑ वञ्चति॒ यो नि॒लायं॒ चर॑ति॒ यः प्र॒तङ्क॑म्। द्वौ सं॑नि॒षद्य॒ यन्म॒न्त्रये॑ते॒ राजा॒ तद्वे॑द॒ वरु॑णस्तृ॒तीयः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । तिष्ठ॑ति । चर॑ति । य: । च॒ । वञ्च॑ति । य: । नि॒ऽलाय॑म् । चर॑ति । य: । प्र॒ऽङ्क॑म् । द्वौ । स॒म्ऽनि॒षद्य॑ । यत् । म॒न्त्रय॑ते॒ । इति॑ । राजा॑ । तत् । वे॒द॒ । वरु॑ण: । तृ॒तीय॑: ॥१६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्तिष्ठति चरति यश्च वञ्चति यो निलायं चरति यः प्रतङ्कम्। द्वौ संनिषद्य यन्मन्त्रयेते राजा तद्वेद वरुणस्तृतीयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । तिष्ठति । चरति । य: । च । वञ्चति । य: । निऽलायम् । चरति । य: । प्रऽङ्कम् । द्वौ । सम्ऽनिषद्य । यत् । मन्त्रयते । इति । राजा । तत् । वेद । वरुण: । तृतीय: ॥१६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (य: तिष्ठति) = जो खड़ा है अथवा (चरति) = चल रहा है (च) = और (यः वञ्चतिः) = जो कुटिलगति में व्याप्त है-किसी को ठग रहा है, (य:) = जो निलाय (चरति) = छिपकर कोई कार्य कर रहा है अथवा (यः प्रतकम्) =  [चरति]-औरों के जीवन को कष्टमय बनाता हुआ गति करता है [तकि कृच्छ्रजीवने] (तत्) = उस सबको (राजा वरुण:) = वह शासक, पाप-निवारक प्रभु (वेद) = जानते हैं। प्रभु से कुछ भी छिपा नहीं है। (द्वौ) = दो पुरुष [व्यक्ति] (संनिषद्य) = एकान्त में सम्यक् आसीन होकर (यत्) = जो (मन्त्रयेते) = मन्त्रणा करते हैं, वह राजा वरुण (तृतीयः) = उन दो के साथ तीसरे के रूप में होकर उस सब मन्त्रणा को जान रहा होता है। उनकी वह गुप्त-मन्त्रणा प्रभु से गुप्त नहीं होती।

    भावार्थ -

    प्रभु हमारे सब कर्मों को देख रहे हैं। हमारी कोई भी मन्त्रणा उससे छुपी नहीं होती।

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