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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 16
    सूक्त - अथर्वा देवता - वातः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त

    म॒हान्तं॒ कोश॒मुद॑चा॒भि षि॑ञ्च सविद्यु॒तं भ॑वतु॒ वातु॒ वातः॑। त॒न्वतां॑ य॒ज्ञं ब॑हु॒धा विसृ॑ष्टा आन॒न्दिनी॒रोष॑धयो भवन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हान्त॑म् । कोश॑म् । उत् । अ॒च॒ । अ॒भि । सि॒ञ्च॒ । स॒ऽवि॒द्यु॒तम् । भ॒व॒तु॒ । वातु॑ । वात॑: । त॒न्वता॑म् । य॒ज्ञम् । ब॒हु॒ऽधा । विऽसृ॑ष्टा: । आ॒ऽन॒न्दिनी॑: । ओष॑धय: । भ॒व॒न्तु॒ ॥१५.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महान्तं कोशमुदचाभि षिञ्च सविद्युतं भवतु वातु वातः। तन्वतां यज्ञं बहुधा विसृष्टा आनन्दिनीरोषधयो भवन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान्तम् । कोशम् । उत् । अच । अभि । सिञ्च । सऽविद्युतम् । भवतु । वातु । वात: । तन्वताम् । यज्ञम् । बहुऽधा । विऽसृष्टा: । आऽनन्दिनी: । ओषधय: । भवन्तु ॥१५.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. हे प्रभो! आप सूर्यकिरणों द्वारा (महान्तं कोशम्) = जल के महान् कोशभूत मेघ को (उदच) = समुद्र से उदकपूर्ण करके ऊपर अन्तरिक्ष में प्राप्त कराइए। (अभिषिञ्च) = उस मेघ से वृष्टिजल के द्वारा सम्पूर्ण भूमि को सिक्त कीजिए। अन्तरिक्ष सविद्युतम् (भवतु) = विद्युत्साहित हो जाए। (वात:) = वृष्टयनुकूल वायु (वातु) = बहे। २. (यज्ञं तन्वताम्) = इस पृथिवी पर यज्ञ विस्तृत हो। घर-घर में लोग यज्ञ करनेवाले हों। यज्ञों से वृष्टि होने पर अब (बहुधा) = बहुत प्रकार से (विसृष्टा:) = विविध रूपों में उत्पन्न हुई-हुई (ओषधयः) = ओषधियाँ-नीह-यव आदि ग्राम्य तथा तरू, गुल्म आदि अरण्य ओषधियाँ (आनन्दिनी: भवन्तु) = प्राणिमात्र को आनन्दित करनेवाली हों।

    भावार्थ -

    प्रभु के अनुग्रह से सारा वातावरण वृष्टि के लिए अनुकूल हो। सब घरों में यज्ञों का विस्तार हो। उत्पन्न हुई-हुई विविध ओषधियाँ प्राणियों के लिए आनन्द देनेवाली हों।

     

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