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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वा देवता - मरुद्गणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त

    सं वो॑ऽवन्तु सु॒दान॑व॒ उत्सा॑ अजग॒रा उ॒त। म॒रुद्भिः॒ प्रच्यु॑ता मे॒घा वर्ष॑न्तु पृथि॒वीमनु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । व॒: । अ॒व॒न्तु॒ । सु॒ऽदान॑व: । उत्सा॑: । अ॒ज॒ग॒रा: । उ॒त । म॒रुत्ऽभि॑: । प्रऽच्यु॑ता: । मे॒घा: । वर्ष॑न्तु । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ ॥१५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं वोऽवन्तु सुदानव उत्सा अजगरा उत। मरुद्भिः प्रच्युता मेघा वर्षन्तु पृथिवीमनु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । व: । अवन्तु । सुऽदानव: । उत्सा: । अजगरा: । उत । मरुत्ऽभि: । प्रऽच्युता: । मेघा: । वर्षन्तु । पृथिवीम् । अनु ॥१५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. हे (सुदानव:) = शोभन दान करनेवाले मनुष्यो! ये (उत्सा:) = जलों के प्रवाह (उत अजगरा:) = जोकि अजगरों के समान स्थूल आकारवाले प्रतीत हो रहे हैं [उत वितर्के], वे (व:) = तुम्हें (समवन्तु) = सम्यक् रक्षित करें। २. (मरुद्भिः) = वायुओं से (प्रच्युता:) = प्रेरित हुए-हुए (मेघा:) = बादल (पृथिवीं अनु वर्षन्तु) = पृथिवी पर अनुकूलता से वर्षा करें।

    भावार्थ -

    हम अग्निहोत्र में सम्यक् आहुति देनेवाले हों-सुदानु बनें, तब मेघों से वृष्टि होकर स्थूल जल-प्रवाह हमारा कल्याण करनेवाले होंगे।



     

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