अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
उदी॑रयत मरुतः समुद्र॒तस्त्वे॒षो अ॒र्को नभ॒ उत्पा॑तयाथ। म॑हऋष॒भस्य॒ नद॑तो॒ नभ॑स्वतो वा॒श्रा आपः॑ पृथि॒वीं त॑र्पयन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ई॒र॒य॒त॒ । म॒रु॒त॒: । स॒मु॒द्र॒त: । त्वे॒ष: । अ॒र्क: । नभ॑: । उत् । पा॒त॒या॒थ॒ । म॒हा॒ऽऋ॒ष॒भस्य॑ । नद॑त: । नभ॑स्वत: । वा॒श्रा: । आप॑: । पृ॒थि॒वीम् । त॒र्प॒य॒न्तु॒ ॥१५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीरयत मरुतः समुद्रतस्त्वेषो अर्को नभ उत्पातयाथ। महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ईरयत । मरुत: । समुद्रत: । त्वेष: । अर्क: । नभ: । उत् । पातयाथ । महाऽऋषभस्य । नदत: । नभस्वत: । वाश्रा: । आप: । पृथिवीम् । तर्पयन्तु ॥१५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
विषय - समुद्रजल का वाष्पीभवन व मेघ-निर्माण
पदार्थ -
१. हे (मरुतः) = वायुओ! (समुद्रतः) = समुद्र से वृष्टिजल को (उदीरयत) = ऊपर प्रेरित करो। (त्वेषः अर्क:) = यह दीप्तिवाला सूर्य है। हे मरुतो! इस सूर्य से सहायता प्राप्त करके (नभ:) = जलयुक्त मेघोंको (उत्पातयाथ) = ऊपर आकाश में प्रास कराओ। २. (महऋषभस्य) = महान् ऋषभ के समान (नदत:) = गर्जना करते हुए (नभस्वत:) = वायुप्रेरित मेघ के (वाश्रा:) = शब्दायमान (आप:) = जल (पृथिवीम् तर्पयन्तु) = पृथिवी को तप्त करें-उसे ओषधियों के प्ररोहण में समर्थ करें।
भावार्थ -
सूर्य का प्रचण्ड ताप तथा वायुएँ मिलकर आकाश में मेघों को प्राप्त कराएँ। 'पृथिवी का समुद्र''आकाश का समुद्र' बन जाए। तब वृष्टि होकर पृथिवी नाना ओषधियों को जन्म देनेवाली हो।
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