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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    ईशा॑णां त्वा भेष॒जाना॒मुज्जे॑ष॒ आ र॑भामहे। च॒क्रे स॒हस्र॑वीर्यं॒ सर्व॑स्मा ओषधे त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ईशा॑नाम् । त्वा॒ । भे॒ष॒जाना॑म् । उत्ऽजे॑षे । आ । र॒भा॒म॒हे॒ । च॒क्रे । स॒हस्र॑ऽवीर्यम् । सर्व॑स्मै । ओ॒ष॒धे॒ । त्वा॒ ॥१७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईशाणां त्वा भेषजानामुज्जेष आ रभामहे। चक्रे सहस्रवीर्यं सर्वस्मा ओषधे त्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईशानाम् । त्वा । भेषजानाम् । उत्ऽजेषे । आ । रभामहे । चक्रे । सहस्रऽवीर्यम् । सर्वस्मै । ओषधे । त्वा ॥१७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (भेषजानाम्) = ओषधियों की (ईशानाम्) = ईशान-[ईश्वर]-भूत हे अपमार्ग! (त्वाम्) = तुझे (उज्नेषे) = रोगों को पराजित करने के लिए (आरभामहे) = संस्पृष्ट करते हैं। तेरे उचित प्रयोग से हम सब रोगों को दूर करते हैं। २. हे (ओषधे) = दोषों को दग्ध करनेवाली! (त्वा) = तुझे (सर्वस्मै) = सब दोषों की निवृत्ति के लिए प्रभु ने (सहस्त्रबीर्यम् चक्रे) = अपरिमित सामर्थ्ययुक्त बनाया है-तुझमें सब दोषों को दग्ध करने की शक्ति रक्खी है।

    भावार्थ -

    अपामार्ग ओषधि अपरिमित सामर्थ्ययुक्त है। यह सब रोगों को दूर करने में समर्थ है|

     

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