अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
या श॒शाप॒ शप॑नेन॒ याघं मूर॑माद॒धे। या रस॑स्य॒ हर॑णाय जा॒तमा॑रे॒भे तो॒कम॑त्तु॒ सा ॥
स्वर सहित पद पाठया । श॒शाप॑ । शप॑नेन । या । अ॒घम् । मूर॑म् । आ॒ऽद॒धे ।या । रस॑स्य । हर॑णाय । जा॒तम् । आ॒ऽरे॒भे । तो॒कम् । अ॒त्तु॒ । सा ॥१७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
या शशाप शपनेन याघं मूरमादधे। या रसस्य हरणाय जातमारेभे तोकमत्तु सा ॥
स्वर रहित पद पाठया । शशाप । शपनेन । या । अघम् । मूरम् । आऽदधे ।या । रसस्य । हरणाय । जातम् । आऽरेभे । तोकम् । अत्तु । सा ॥१७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
विषय - रोगवद्धि की समाप्ति
पदार्थ -
१. (या) = जो रोग (शपनेन) = आक्रोशों के द्वारा (शशाप) = आक्रोशयुक्त करता है, अर्थात् जिस बीमारी में रोगी ऊटपटांग बोलने लगता है, (या) = जो बीमारी (मुरम्) = [मुर्छा मौहे] मूळ उत्पन्न करनेवाले (अघम्) = कष्ट को (आदधे) = धारण करती है अथवा (या) = जो रोग (रसस्य हरणाय) = शरीरगत रुधिर आदि रसों के हरण के लिए (जातम् आरेभे) = उत्पन्न सन्तान का आलिङ्गन करता है-बच्चे को चिपट जाता है (सा) = वह अपामार्ग नामक ओषधि (तोकम् अत्तु) = इस रोग की वृद्धि को खा जाए-ओषध-प्रयोग से यह रोग जाता रहे।
भावार्थ -
कई रोगों में रोगी ऊटपटाँग बोलने लगता है, उसे चित्तभ्रम-सा [delirium] हो जाता है, कइयों में मूर्छा की स्थिति हो जाती है, कइयों में खून सूखने लगता है। अपामार्ग ओषधि इन सब रोगों को रोकती है।
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