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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    अ॑पामा॒र्ग ओष॑धीनां॒ सर्वा॑सा॒मेक॒ इद्व॒शी। तेन॑ ते मृज्म॒ आस्थि॑त॒मथ॒ त्वम॑ग॒दश्च॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पा॒मा॒र्ग: । ओष॑धीनाम् । सर्वा॑साम् । एक॑: । इत् । व॒शी । तेन॑ । ते॒ । मृ॒ज्म॒: । आऽस्थि॑तम् । अथ॑ । त्वम् । अ॒ग॒द: । च॒र॒ ॥१७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपामार्ग ओषधीनां सर्वासामेक इद्वशी। तेन ते मृज्म आस्थितमथ त्वमगदश्चर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपामार्ग: । ओषधीनाम् । सर्वासाम् । एक: । इत् । वशी । तेन । ते । मृज्म: । आऽस्थितम् । अथ । त्वम् । अगद: । चर ॥१७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. हे (अपामार्ग) = अपामार्ग! तू (सर्वासाम्) = सब (ओषधीनाम्) = ओषधियों का (एकः इत्) = अकेला ही (वशी) = वश में करनेवाला है। तू ओषधियों का सम्राट् है। २. हे रुग्ण पुरुष! (तेन) = उस अपामार्ग के प्रयोग से (ते) = तेरे (आस्थितम्) = शरीर में समन्तात् स्थित रोग को (मृज्म:) = साफ़ कर डालते हैं। (अथ) = अब (त्वम्) = तू (अगदः) = नीरोग होकर (चर) = विचारनेवाला हो।

    भावार्थ -

    अपामार्ग सब ओषधियों के गुणों से सम्पन्न है। इसके प्रयोग से शरीर में कहीं भी स्थित रोग को हम दूर करते हैं। यह रुग्ण पुरुष नीरोग होकर विचरण करे।अपामार्ग का ही विषय अगले सूक्त में भी है।

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