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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    तृ॑ष्णामा॒रं क्षु॑धामा॒रं अथो॑ अक्षपराज॒यम्। अपा॑मार्ग॒ त्वया॑ व॒यं सर्वं॒ तदप॑ मृज्महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तृ॒ष्णा॒ऽमा॒रम् । क्षु॒धा॒ऽमा॒रम् । अथो॒ इति॑ । अ॒क्ष॒ऽप॒रा॒ज॒यम् । अपा॑मार्ग । त्वया॑ । व॒यम् । सर्व॑म् । तत् । अप॑ । मृ॒ज्म॒हे॒ ॥१७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तृष्णामारं क्षुधामारं अथो अक्षपराजयम्। अपामार्ग त्वया वयं सर्वं तदप मृज्महे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तृष्णाऽमारम् । क्षुधाऽमारम् । अथो इति । अक्षऽपराजयम् । अपामार्ग । त्वया । वयम् । सर्वम् । तत् । अप । मृज्महे ॥१७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (तृष्णामारम्) = प्यास को मार देनेवाले अथवा प्यास से मार देनेवाले रोग को, (क्षुधामारम्) = भूख को मार देनेवाले अथवा भूख से मार देनेवाले रोग को अथ उ-और निश्चय से (अक्षपराजयम्) = इन्द्रियों के (पराजय) = [शैथिल्य]-रूप रोग की हे अपामार्ग! (त्वया) = तेरे प्रयोग से (वयम्) = हम (तत् सर्वम्) = उस सबको (अपमृण्महे) = दूर करते हैं।

    भावार्थ -

    अपामार्ग के प्रयोग से भूख व प्यास ठीक लगने लगती है और इन्द्रियों का शैथिल्य नष्ट होता है।

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