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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    स॒मं ज्योतिः॒ सूर्ये॒णाह्ना॒ रात्री॑ स॒माव॑ती। कृ॑णोमि स॒त्यमू॒तये॑ऽर॒साः स॑न्तु॒ कृत्व॑रीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मम् । ज्योति॑: । सूर्ये॑ण । अह्ना॑ । रात्री॑ । स॒मऽव॑ती । कृ॒णोमि॑। स॒त्यम् । ऊ॒तये॑ । अ॒र॒सा: । स॒न्तु॒ । कृत्व॑री: ॥१८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समं ज्योतिः सूर्येणाह्ना रात्री समावती। कृणोमि सत्यमूतयेऽरसाः सन्तु कृत्वरीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समम् । ज्योति: । सूर्येण । अह्ना । रात्री । समऽवती । कृणोमि। सत्यम् । ऊतये । अरसा: । सन्तु । कृत्वरी: ॥१८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (सूर्येण) = सूर्य के साथ (ज्योतिः) = उसका प्रभामण्डल (समम्) = समान ही होता है। यह प्रभामण्डल सूर्य से कभी पृथक् नहीं होता और (रात्री) = रात (अह्रा) = दिन के साथ (समावती) = समान आयामवाली होती है। वस्तुत: रात्रि दिन के साथ जुड़ी हुई है। जहाँ दिन है, रात्रि उसके साथ है ही, जैसे ज्योति सूर्य से कभी अलग नहीं होती, जैसे रात्रि दिन के साथ जुड़ी हुई है, इसीप्रकार मैं अपने साथ (सत्यं कृणोमि) = सत्य को जोड़ता हूँ। यह सत्य (ऊतये) = मेरे रक्षण के लिए होता है। मेरे जीवन के साथ सत्य का इसप्रकार सम्बन्ध होने पर (कृत्वरी:) = कर्तनशील कृत्याएँ-सब हिंसाएँ (अरसा:सन्तु) = रसशून्य, शुष्क व व्यर्थ हो जाएँ। सत्यशील होने पर मुझे किसी प्रकार से भी हिंसित नहीं होना पड़ता।

    भावार्थ -

    मैं जीवन में सत्य का इसप्रकार सम्बन्ध स्थापित करता है, जैसा ज्योति का सुर्य के साथ सम्बन्ध है और रात्रि का दिन के। यह सत्य का सम्बन्ध मुझे हिंसित नहीं होने देता।

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