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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    अ॒नया॒हमोष॑ध्या॒ सर्वाः॑ कृ॒त्या अ॑दूदुषम्। यां क्षेत्रे॑ च॒क्रुर्यां गोषु॒ यां वा॑ ते॒ पुरु॑षेषु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒नया॑ । अ॒हम् । ओष॑ध्या । सर्वा॑: । कृ॒त्या: । अ॒दू॒दु॒ष॒म् । याम् । क्षेत्रे॑ । च॒क्रु: । याम् । गोषु॑ । याम् । वा॒ । ते॒ । पुरु॑षेषु ॥१८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनयाहमोषध्या सर्वाः कृत्या अदूदुषम्। यां क्षेत्रे चक्रुर्यां गोषु यां वा ते पुरुषेषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनया । अहम् । ओषध्या । सर्वा: । कृत्या: । अदूदुषम् । याम् । क्षेत्रे । चक्रु: । याम् । गोषु । याम् । वा । ते । पुरुषेषु ॥१८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (अहम्) = मैं (अनया) = इस (ओषध्या) = अपामार्ग नामक औषधि के द्वारा (सर्वाः कृत्या:) = सब प्रकार के रोगकृमियों से जनित शरीर के हिंसनों को (अदूदुषम्) = दूर करता हूँ। इन सब हिंसन कार्यों को दूषित करता हूँ। २. (याम्) = जिस हिंसन-क्रिया को (क्षेत्रे) = शरीररूप क्षेत्र में (चक्रुः) = करते हैं, (याम्) = जिसे (गोषु) = गौओं में (याम्) = जिसे (वाते) = वायु-सम वेगवाले अश्वों में करते हैं (वा) = और जिसे (पुरुषेषु) = हमारे किन्हीं भी व्यक्तियों में जिस हिंसन-कार्य को करते हैं, उस सब हिंसन कार्य को दूषित करके मैं दूर करता हूँ। ३. यहाँ 'गोषु' का भाव ज्ञानेन्द्रियों में करे तो 'वाते' का भाव [वा गती] कर्मेन्द्रियों में होगा। इनमें उत्पन्न किये गये हिंसन-कार्यों को भी मैं दूर करता हूँ।

    भावार्थ -

    अपामार्ग ओषधि के प्रयोग से शरीर में-ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में या अन्य व्यक्तियों में रोगकृमियों द्वारा जनित हिंसनों को हम दूर करते हैं।

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