अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 7
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
अ॑पामा॒र्गोऽप॑ मार्ष्टु क्षेत्रि॒यं श॒पथ॑श्च॒ यः। अपाह॑ यातुधा॒नीरप॒ सर्वा॑ अरा॒य्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पा॒मा॒र्ग: । अप॑ । मा॒र्ष्टु॒ । क्षे॒त्रि॒यम् । श॒पथ॑: । च॒ । य: ।अप॑ । अह॑ । या॒तु॒ऽधा॒नी: । अप॑ । सर्वा॑: । अ॒रा॒य्य᳡: ॥१८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामार्गोऽप मार्ष्टु क्षेत्रियं शपथश्च यः। अपाह यातुधानीरप सर्वा अराय्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअपामार्ग: । अप । मार्ष्टु । क्षेत्रियम् । शपथ: । च । य: ।अप । अह । यातुऽधानी: । अप । सर्वा: । अराय्य: ॥१८.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 7
विषय - क्षेत्रिय रोग-निराकरण
पदार्थ -
१. (अपामार्ग:) = [अपमण्यते रोगादिनिराकरणेन पुरुष: शोध्यते अनने] यह अपामार्ग ओषधि (क्षेत्रियम्) = माता-पिता के शरीर से आगत संक्रामक क्षय, कुष्ठ, अपस्मार आदि रोगों को (अपमाष्टुं) = दूर करे (च) = और (य:) = जो (शपथ:) = रोगपीड़ा-जनित आक्रोश है, उसे भी दूर करे। २. यह अपामार्ग (अह) = निश्चय से (यातुधानी:) = पीड़ा को आहित करनेवाली व्याधियों को (अप) = दूर करे तथा यह (सर्वा:) = सब (अराय्य:) = अलक्ष्मियों को निस्तेजताओं को (अप) = दूर करे।
भावार्थ -
अपामार्ग ओषधि द्वारा सब आक्रोशजनक व कष्टप्रद क्षेत्रिय रोग भी दूर हो जाते हैं। निस्तेजस्कता दूर होकर शरीर लक्ष्मी-[कान्ति]-सम्पन्न हो जाता है।
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