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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    यो दे॑वाः कृ॒त्यां कृ॒त्वा हरा॒दवि॑दुषो गृ॒हम्। व॒त्सो धा॒रुरि॑व मा॒तरं॒ तं प्र॒त्यगुप॑ पद्यताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । दे॒वा॒: । कृ॒त्याम् । कृ॒त्वा । हरा॑त् । अवि॑दुष: । गृ॒हम् । व॒त्स: । धा॒रु:ऽइ॑व । मा॒तर॑म् । तम् । प्र॒त्यक् । उप॑ । प॒द्य॒ता॒म् ॥१८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो देवाः कृत्यां कृत्वा हरादविदुषो गृहम्। वत्सो धारुरिव मातरं तं प्रत्यगुप पद्यताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । देवा: । कृत्याम् । कृत्वा । हरात् । अविदुष: । गृहम् । वत्स: । धारु:ऽइव । मातरम् । तम् । प्रत्यक् । उप । पद्यताम् ॥१८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. हे (देवा:) = देवो! (य:) = जो (कृत्या कृत्वा) = हिंसा का प्रयोग करके (अ-विदुषः) = छल-कपट की सम्भावना को न समझते हुए [विद् जानना] अजान पुरुष के (गृहं हरात) = घर का अपहरण करता है-उसे हानि पहुँचता है। यह हिंसा-कर्म (तम् प्रत्यक्) = उसकी ओर लौटकर उसे उसी प्रकार (उपपद्यताम्) = प्राप्त हो (इव) = जैसेकि (धारु:) = [धेट पाने] स्तनपान करनेवाला (वत्सः) = बछड़ा (मातरम्) = माता के प्रति ही जाता है। २. जो छल-कपटपूर्वक दूसरों का हिंसन करने का प्रयत्न करता है, वह अन्ततः उस हिंसा का स्वयं ही शिकार हो जाता है।

    भावार्थ -

    प्रभु की सब प्राकृतिक शक्तियाँ ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देती हैं कि हिंसा करनेवाला उस हिंसा-प्रयोग का स्वंय ही शिकार हो जाता है।

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