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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    यश्च॒कार॒ न श॒शाक॒ कर्तुं॑ श॒श्रे पाद॑म॒ङ्गुरि॑म्। च॒कार॑ भ॒द्रम॒स्मभ्य॑मा॒त्मने॒ तप॑नं॒ तु सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । च॒कार॑ । न । श॒शाक॑ । कर्तु॑म् । श॒श्रे । पाद॑म् । अ॒ङ्गुरि॑म् । च॒कार॑ । भ॒द्रम् । अ॒स्मभ्य॑म् । आ॒त्मने॑ । तप॑नम् । तु । स: ॥१८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यश्चकार न शशाक कर्तुं शश्रे पादमङ्गुरिम्। चकार भद्रमस्मभ्यमात्मने तपनं तु सः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । चकार । न । शशाक । कर्तुम् । शश्रे । पादम् । अङ्गुरिम् । चकार । भद्रम् । अस्मभ्यम् । आत्मने । तपनम् । तु । स: ॥१८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (यः) = जो शत्रु (चकार) = हिंसन-कार्य करता है, और इस हिंसन-कार्य द्वारा (पादम्) = एक पाँव को अथवा (अंगुरिम्) = एक अंगुलि को (शश्रे) = हिंसित करता है, वह शत्रु (कर्तुं न शशाक) = हिंसन कार्य को करने में समर्थ नहीं होता। २. वस्तुतः (सः) = वह शत्रु इन हिंसन-प्रयोगों से (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (भद्रं चकार) = कल्याण ही करता है, (आत्मने तु) = अपने लिए तो (तपनम्) = दहन को करनेवाला होता है। ये हिंसन के प्रयोग हमें धैर्य धारण का अवसर देते हैं और इनका प्रयोक्ता अपने ही हृदय में विषैली वासनाओं को जन्म देनेवाला होता है।

    भावार्थ -

    जो दूसरों का हिंसन करने का प्रत्यन करता है, वह वस्तुत: अपना ही अमङ्गल करता है।

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