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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
    सूक्त - मृगारः देवता - मरुद्गणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    म॒रुतां॑ मन्वे॒ अधि॑ मे ब्रुवन्तु॒ प्रेमं वाजं॒ वाज॑साते अवन्तु। आ॒शूनि॑व सु॒यमा॑नह्व ऊ॒तये॒ ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒रुता॑म् । म॒न्वे॒ । अधि॑ । मे॒ । ब्रु॒व॒न्तु॒ । प्र । इ॒मम् । वाज॑म् । वाज॑ऽसाते । अ॒व॒न्तु॒ । आ॒शूनऽइ॑व । सु॒ऽयमा॑न् ।अ॒ह्वे॒ । ऊ॒तये॑ । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुतां मन्वे अधि मे ब्रुवन्तु प्रेमं वाजं वाजसाते अवन्तु। आशूनिव सुयमानह्व ऊतये ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मरुताम् । मन्वे । अधि । मे । ब्रुवन्तु । प्र । इमम् । वाजम् । वाजऽसाते । अवन्तु । आशूनऽइव । सुऽयमान् ।अह्वे । ऊतये । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (मरुताम् मन्वे) = शरीर में उनचास भागों में विभक्त होकर विविध कार्यों को करते हुए इन मरुतों [प्राणों] का मैं मनन करता हूँ-इनके महत्व को समझने के लिए यत्नशील होता हूँ। वे मरुत् (मे) = मेरे लिए (अधिब्रुवन्तु) = 'हमारा यह अनुगृह्य है'-इसप्रकार कहें, अर्थात् मैं सदा इन प्राणों का अनुकम्पनीय बना रहूँ। ये मरुत् (वाजसाते) = इस जीवन-संग्राम में मेरे (इमम्) = इस (वाजम) = बल को (प्रअवन्तु) = प्रकर्षेण रक्षित करें। २. (सुयमान) = सम्यक नियन्त्रित आशन इव मार्ग का शीघ्रता से व्यापन करनेवाले घोड़ों की भाँति मैं इन प्राणों को अपने (ऊतये) = रक्षण के लिए (अढे) = पुकारता हूँ। (ते) = वै मरुत् (न:) = हमें (अहंसः) = पाप से (मुञ्चन्तु) = मुक्त करें।

    भावार्थ -

    हम प्राणों के महत्व को समझें। ये प्राण ही हमारे बल का रक्षण करते हैं। सुनियन्त्रित अश्वों के समान लक्ष्य-स्थान पर पहुँचाकर ये हमारा कल्याण करते है। ये हमें पाप मुक्त करें। प्राणसाधना दोषदहन करती ही है।

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