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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
    सूक्त - मृगारः देवता - मरुद्गणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    उत्स॒मक्षि॑तं॒ व्यच॑न्ति॒ ये सदा॒ य आ॑सि॒ञ्चन्ति॒ रस॒मोष॑धीषु। पु॒रो द॑धे म॒रुतः॒ पृश्नि॑मातॄं॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्स॑म् । अक्षि॑तम् । वि॒ऽअच॑न्ति । ये । सदा॑ । ये । आ॒ऽसि॒ञ्चन्ति॑ । रस॑म् । ओष॑धीषु । पु॒र: । द॒धे॒ । म॒रुत॑: । पृश्नि॑ऽमातृन् । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्समक्षितं व्यचन्ति ये सदा य आसिञ्चन्ति रसमोषधीषु। पुरो दधे मरुतः पृश्निमातॄंस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्सम् । अक्षितम् । विऽअचन्ति । ये । सदा । ये । आऽसिञ्चन्ति । रसम् । ओषधीषु । पुर: । दधे । मरुत: । पृश्निऽमातृन् । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. आधिदैविक जगत् में 'मरुत्' वायुओं का नाम है। (ये) = जो मरुत् (सदा) = सदा (उत्सम्) = वृष्टिधारायुक्त मेघ को (अक्षितम्) = क्षयरहित, अर्थात् सदा प्रवृद्ध (व्यचन्ति) = अन्तरिक्ष में विस्तृत करते हैं और इनके द्वारा (ओषधीषु) = ओषधियों बनस्पतियों में (ये) = जो (रसम्) = वृष्टिजलरूप रस को (आसिञ्चन्ति) = समन्तात् सिक्त करते हैं। २. उन (पृश्निमातुन) = अन्तरिक्ष में होनेवाली माध्यमिका वाक् [मेघगर्जना] के बनानेवाले (मरुतः) = इन मरुतों को मैं (पुरः दधे) = सबसे प्रथम स्थापित करता हूँ। इनका मेरे जीवन में सर्वप्रथम स्थान है। इन मरुतों के अभाव में वृष्टि न होने पर सब प्राणियों का जीवन समास ही हो जाए। (ते) = वे मरुत् (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चन्तु) = छुड़ाएँ। अन्न के खूब होने पर किसी के भूखे न रहने से पापवृत्ति कम हो ही जाती है।

    भावार्थ -

    मरुत् अन्तरिक्ष में मेषों का विस्तार करते हैं। उनके द्वारा ये ओषधियों में रस का सेचन करते हैं। इसप्रकार इन मरुतों का हमारे जीवन में प्रमुख स्थान है। ये हमें खूब अन्न प्राप्त कराके पाप-मुक्त जीवनवाला बनाएँ।

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