अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
यदीदि॒दं म॑रुतो॒ मारु॑तेन॒ यदि॑ देवा॒ दैव्ये॑ने॒दृगार॑। यू॒यमी॑शिध्वे वसव॒स्तस्य॒ निष्कृ॑ते॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । इत् । इ॒दम् । म॒रु॒त॒: । मारु॑तेन । यदि॑ । दे॒वा॒: । दैव्ये॑न । ई॒दृक् । आर॑ । यू॒यम् । ई॒शि॒ध्वे॒ । व॒स॒व॒: । तस्य॑ । निऽकृ॑ते : । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदीदिदं मरुतो मारुतेन यदि देवा दैव्येनेदृगार। यूयमीशिध्वे वसवस्तस्य निष्कृतेस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । इत् । इदम् । मरुत: । मारुतेन । यदि । देवा: । दैव्येन । ईदृक् । आर । यूयम् । ईशिध्वे । वसव: । तस्य । निऽकृते : । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
विषय - मारुतेन दैव्येन
पदार्थ -
१. प्राणसाधना करते हुए यदि हठपूर्वक प्राणायाम करने से शरीर में कोई दोष हो जाए तो यह 'मारुत' अपराध कहलाता है। उससे उत्पन्न कष्टों को भी मरुतों ने ही दूर करना है। (इदम्) = यह अनुभूयमान मेरा दुःख हे (मरुतः) = मरुतो ! (मारुतेन) = प्राणों के विषय में किये गये अपराध से (इत्) = ही (ईदक्) = ऐसा कष्ट (यदि) = यदि (आर) = प्राप्त हुआ है अथवा हे (देवा:) = वायुरूप देवो! (यदि) = यदि यह कष्ट (दैव्येन) = वायु आदि देवों के विषय में किय गये अग्निहोत्र आदि यज्ञों के न करनेरूप पाप से हमें प्राप्त हुआ है तो (यूयम्) = हे मरुतो! आप (तस्य) = उस कष्ट के (निष्कृते:) = बाहर निकालने व परिहार के लिए (ईंशिध्वे) = समर्थ हो। हे मरुतो! आप इन कष्टों का निराकरण करके वसवः हमें उत्तमता से बसानेवाले हो। २. (ते) = वे मरुत् [प्राण] (नः) = हमें (अंहस:) = पाप से (मुञ्चन्तु) = मुक्त करें। ('प्राणायामैदहेद् दोषान्') = प्राणसाधना से दोष दूर होते ही हैं।
भावार्थ -
यदि हठपूर्वक प्राणसाधना से कोई कष्ट प्राप्त हुआ है अथवा अग्निहोत्रादि न करने से वृष्टिवाहक मरुतों का कार्य ठीक न होने से कष्ट हुआ है, तो मरुत् ही उन कष्टों को दूर कर हमें पाप-मुक्त करें।