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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 7
    सूक्त - मृगारः देवता - मरुद्गणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    ति॒ग्ममनी॑कं विदि॒तं सह॑स्व॒न्मारु॑तं॒ शर्धः॒ पृत॑नासू॒ग्रम्। स्तौमि॑ म॒रुतो॑ नाथि॒तो जो॑हवीमि॒ ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒ग्मम् । अनी॑कम् । वि॒दि॒तम् । सह॑स्वत् । मारु॑तम् । शर्ध॑: । पृत॑नासु । उ॒ग्रम् । स्तौमि॑ । म॒रुत॑: । ना॒थि॒त: । जो॒ह॒वी॒मि॒ । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिग्ममनीकं विदितं सहस्वन्मारुतं शर्धः पृतनासूग्रम्। स्तौमि मरुतो नाथितो जोहवीमि ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिग्मम् । अनीकम् । विदितम् । सहस्वत् । मारुतम् । शर्ध: । पृतनासु । उग्रम् । स्तौमि । मरुत: । नाथित: । जोहवीमि । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (मारुतम्) = प्राणों का (अनीकम्) = बल (तिग्मम्) = बड़ा तीन है। यह (सहस्वत् विदितम्) = शत्रुओं का मर्षण करनेवाला माना गया है। प्राणसाधना से शरीर में रोगकृमिरूप सब शत्रुओं का नाश होता है तो मानसक्षेत्र में वासनारूप शत्रुओं का मर्षण होता है। यह (शर्ध:) = प्राणों का बल (पृतनास उनम्) = संग्रामों में बड़ा उद्गुर्ण-शत्रुओं का नाशक है। २. मैं इन (मरुतः) = प्राणों की (स्तौमि) = स्तुति करता हूँ, (नाथित:) = कष्टों से सन्तप्त हुआ-हुआ (जोहवीमि) = इन प्राणों को ही पुकारता हूँ। (ते) = वे प्राण (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चन्तु) = मुक्त करें।

    भावार्थ -

    प्राणों का बल बड़ा प्रचण्ड है। यह रोगकृमियों व वासनाओं को नष्ट करके हमें व्याधि व आधि के कष्टों से बचाता है। हम इन प्राणों का स्तवन करते हैं। ये हमें पाप से मुक्त करें।

    अगले सूक्त का ऋषि भी 'मृगार' है -

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