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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    सूक्त - मृगारोऽअथर्वा वा देवता - भवाशर्वौ रुद्रो वा छन्दः - अतिजागतगर्भा भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    भवा॑शर्वौ म॒न्वे वां॒ तस्य॑ वित्तं॒ ययो॑र्वामि॒दं प्र॒दिशि॒ यद्वि॒रोच॑ते। याव॒स्येशा॑थे द्वि॒पदो॒ यौ चतु॑ष्पद॒स्तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भवा॑शर्वौ॑ । म॒न्वे । वा॒म् । तस्य॑ । वि॒त्त॒म् । ययो॑: । वा॒म् । इ॒दम् । प्र॒ऽदिशि॑ । यत् । वि॒ऽरोच॑ते । यौ । अ॒स्य । ईशा॑थे॒ इति॑ । द्वि॒ऽपद॑: । यौ । चतु॑:ऽपद: । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भवाशर्वौ मन्वे वां तस्य वित्तं ययोर्वामिदं प्रदिशि यद्विरोचते। यावस्येशाथे द्विपदो यौ चतुष्पदस्तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भवाशर्वौ । मन्वे । वाम् । तस्य । वित्तम् । ययो: । वाम् । इदम् । प्रऽदिशि । यत् । विऽरोचते । यौ । अस्य । ईशाथे इति । द्विऽपद: । यौ । चतु:ऽपद: । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. 'भवति अस्मात्' इस व्युत्पत्ति से भव का अर्थ है-'सर्वजगत् का उत्पादक प्रभु'। 'शृणाति हिनस्ति सर्वम्' इस व्युत्पत्ति से शर्व का अर्थ है 'प्रलयकर्ता रुद्र'। (भवाशार्वो मन्वे) = मैं उस उत्पादक और प्रलयकर्ता प्रभु का मनन करता है। हे भव और शर्व! (वाम्) = आप (तस्य वित्तम) = उस मझसे किये जाते हुए मनन को जनिए। मैं आपका दुग्गोचर बना रहूँ। आपकी कृपादृष्टि मुझे सदा प्राप्त हो। (ययो: वाम्) = जिन आपके (प्रदिशि) = प्रदेशन-प्रशासन में (यत् इदम्) = जो यह सम्पूर्ण जगत् है, वह (विरोचते) = प्रकाशित होता है। (यौ) = जो आप (अस्य द्विपदः ईशाथे) = इस पादहयोपेत [दो पौववाले] प्राणिजगत् के ईश हैं, (यौ) = जो आप (चतुष्पदः) = पादचुष्टयोपेत गवादि के ईश हैं, (तौ) = वे आप (नः) = हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें।

    भावार्थ -

    हम उत्पादक व प्रलयकर्ता प्रभु का स्मरण करें। सब जगत् प्रभु के शासन में ही दीप्त हो रहा है। प्रभु ही द्विपाद् व चतुष्पाद् के ईश हैं। वे प्रभु हमें पाप-मुक्त करें। प्रभु स्मरण निष्पाप बनाता ही है।

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