अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
सूक्त - मृगारोऽअथर्वा वा
देवता - भवाशर्वौ रुद्रो वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
ययो॑रभ्य॒ध्व उ॒त यद्दू॒रे चि॒द्यौ वि॑दि॒तावि॑षु॒भृता॒मसि॑ष्ठौ। याव॒स्येशा॑थे द्वि॒पदो॒ यौ चतु॑ष्पद॒स्तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठययो॑: । अ॒भि॒ऽअ॒ध्वे । उ॒त । यत् । दू॒रे । चि॒त् । यौ । वि॒दि॒तौ । इ॒षु॒ऽभृता॑म् । असि॑ष्ठौ । यौ । अ॒स्य । ईशा॑थे॒ इति॑ । द्वि॒ऽपद॑: । यौ । चतु॑:ऽपद: । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स:॥२८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ययोरभ्यध्व उत यद्दूरे चिद्यौ विदिताविषुभृतामसिष्ठौ। यावस्येशाथे द्विपदो यौ चतुष्पदस्तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठययो: । अभिऽअध्वे । उत । यत् । दूरे । चित् । यौ । विदितौ । इषुऽभृताम् । असिष्ठौ । यौ । अस्य । ईशाथे इति । द्विऽपद: । यौ । चतु:ऽपद: । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस:॥२८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
विषय - इषुभृताम् असिष्ठौ
पदार्थ -
१. (अभ्यध्वे) = [अभि अध्वन:-अभ्यध्वः समोपदेशे] जो समीप देश में है (उत) = और (यत्) = जो दूरे (चित्) = बहुत ही दूर है, वह सब (ययो:) = जिन भव और शर्व के प्रशासन में है। (यौ) = जो भव और शर्व हैं वे (इषुभृताम्) = अस्त्रधारण करनेवालों में (असिष्ठौ विदितौ) = सर्वोत्तम क्षेसा माने गये हैं। इन भव और शर्व के समान शत्रुओं पर वज्रप्रहार कौन कर सकता है? 'भूकम्प व ज्वालामुखी का फटना' आदि इन भव और शर्व के अस्त्र हैं-ये क्षणों में ही विनाश कर देते हैं । २. यौ जो भव और (शर्व अस्य द्विपदः) = इन दो पाँववालों के (ईशाथे) = ईश हैं, (यौ) = जो (चतुष्पद:) = चार पावोंवालों के ईश हैं तो वे (न:) = हमें (अहंसः) = पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें।
भावार्थ -
भव और शर्व दूर-से-दूर और समीप-से-समीप सर्वत्र शासकरूप से विद्यमान हैं। ये क्षण में ही वज्रप्रहार द्वारा विनाश कर सकते हैं। वे हमें पापमुक्त करें। इनका चिन्तन हमें पाप-प्रवणता से बचाए।
इस भाष्य को एडिट करें