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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - ब्रह्मौदनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    ब्रह्मा॑स्य शी॒र्षं बृ॒हद॑स्य पृ॒ष्ठं वा॑मदे॒व्यमु॒दर॑मोद॒नस्य॑। छन्दां॑सि प॒क्षौ मुख॑मस्य स॒त्यं वि॑ष्टा॒री जा॒तस्तप॑सोऽधि य॒ज्ञः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑ । अ॒स्य॒ । शी॒र्षम् । बृ॒हत् । अ॒स्य॒ । पृ॒ष्ठम् । वा॒म॒ऽदे॒व्यम् । उ॒दर॑म् । ओ॒द॒नस्य॑ । छन्दां॑सि । प॒क्षौ । मुख॑म् । अ॒स्य॒ । स॒त्यम् । वि॒ष्टा॒री । जा॒त: । तप॑स: । अधि॑ । य॒ज्ञ: ॥३४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मास्य शीर्षं बृहदस्य पृष्ठं वामदेव्यमुदरमोदनस्य। छन्दांसि पक्षौ मुखमस्य सत्यं विष्टारी जातस्तपसोऽधि यज्ञः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म । अस्य । शीर्षम् । बृहत् । अस्य । पृष्ठम् । वामऽदेव्यम् । उदरम् । ओदनस्य । छन्दांसि । पक्षौ । मुखम् । अस्य । सत्यम् । विष्टारी । जात: । तपस: । अधि । यज्ञ: ॥३४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 34; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (अस्य) = इस (ओदनस्य) = ब्रह्मौदन का (ब्रह्म) = ज्ञान ही (शीर्षम्) = सिर है। (बृहत्) = [बृहि वृद्धौ] हृदय की विशालता ही (अस्य पृष्ठम्) = इसकी पीठ है और (वामदेव्यम्) = सुन्दर दिव्य गुणोंवाला होता ही (उदरम्) = उदर है। ब्रह्मौदन को यदि एक पुरुष के रूप में चित्रित करें तो ये 'ब्रह्म, बृहत् और वामदेव्य' इसके भिन्न-भिन्न अङ्ग है। २. इसीप्रकार (छन्दांसि) = पापों को अपवारित करनेवाले वेदमन्त्र इस ओदन के (पक्षों) = पासे-पाव हैं तथा (सत्यम्) = सत्य (अस्य) = इसका (मुखम्) = मुख है। इसप्रकार (तपसः अधि) = ज्ञानग्रहणरूप तप से विष्टारी (यज्ञ: जात:) = हमारी सब शक्तियों का विस्तार करनेवाला यज्ञ उत्पन्न हुआ है, अर्थात् ज्ञान हमारे जीवनों में यज्ञ को जन्म देता है, उस यज्ञ को जो हमारी सब शक्तियों के विस्तार का साधन बनता है।

    भावार्थ -

    हम ज्ञानभोजन करनेवाले बनें। इस ज्ञानग्रहणरूप तप से ही उस यज्ञ की भावना का हममें उदय होता है जो हमारी सब शक्तियों का विस्तार करती है।

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