अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - ब्रह्मौदनम्
छन्दः - त्र्यवसाना सप्तदाकृतिः
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
ए॒ष य॒ज्ञानां॒ वित॑तो॒ वहि॑ष्ठो विष्टा॒रिणं॑ प॒क्त्वा दिव॒मा वि॑वेश। आ॒ण्डीकं॒ कुमु॑दं॒ सं त॑नोति॒ बिसं॑ शा॒लूकं॒ शफ॑को मुला॒ली। ए॒तास्त्वा॒ धारा॒ उप॑ यन्तु॒ सर्वाः॑ स्व॒र्गे लो॒के मधु॑म॒त्पिन्व॑माना॒ उप॑ त्वा तिष्ठन्तु पुष्क॒रिणीः॒ सम॑न्ताः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ष: । य॒ज्ञाना॑म् । विऽत॑त: । वहि॑ष्ठ: । वि॒ष्टा॒रिण॑म् । प॒क्त्वा । दिव॑म् । आ । वि॒वे॒श॒ । आ॒ण्डी॑कम् । कुमु॑दम् । सम् । त॒नो॒ति॒ । बिस॑म् । शा॒लूक॑म् । शफ॑क: । मु॒ला॒ली । ए॒ता: ।त्वा॒ । धारा॑: । उप॑ । य॒न्तु॒ । सर्वा॑: । स्व॒:ऽगे । लो॒के । मधु॑ऽमत् । पिन्व॑माना: । उप॑ । त्वा॒ । ति॒ष्ठ॒न्तु॒ । पु॒ष्क॒रिणी॑: । सम्ऽअ॑न्ता: ॥३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
एष यज्ञानां विततो वहिष्ठो विष्टारिणं पक्त्वा दिवमा विवेश। आण्डीकं कुमुदं सं तनोति बिसं शालूकं शफको मुलाली। एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥
स्वर रहित पद पाठएष: । यज्ञानाम् । विऽतत: । वहिष्ठ: । विष्टारिणम् । पक्त्वा । दिवम् । आ । विवेश । आण्डीकम् । कुमुदम् । सम् । तनोति । बिसम् । शालूकम् । शफक: । मुलाली । एता: ।त्वा । धारा: । उप । यन्तु । सर्वा: । स्व:ऽगे । लोके । मधुऽमत् । पिन्वमाना: । उप । त्वा । तिष्ठन्तु । पुष्करिणी: । सम्ऽअन्ता: ॥३४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
विषय - वितत वहिष्ठ' ज्ञानयज्ञ
पदार्थ -
१. (एषः) = यह ज्ञानयज्ञ (यज्ञानाम्) = यज्ञों में (वितत:) = सर्वाधिक विशालतावाला है-ज्ञानयज्ञ का कहीं अन्त नहीं है-'(अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रम्) = । यह (वहिष्ठः) = वोढ़तम है-हमें अधिक से-अधिक प्रभु के समीप प्राप्त करानेवाला है। (विष्टारिणम्) = शक्तियों का विस्तार करनेवाले इस ज्ञान-भोजन को (पक्त्वा) = पकाकर मनुष्य (दिवम् आविवेश) = स्वर्ग में प्रवेश करता है। २. यह अपने घर में (आण्डीकम्) = अण्डाकृति कन्द से उत्पन्न होनेवाले (कुमुदम्) = कमलों को घर के चारों ओर होनेवाले जलकुण्डों में [हदेषु] (सन्तनोति) = विस्तृत करता है। ये कुमुद [को मोदते] घर के वातावरण को शोभायुक्त करते हैं। इन हदों में (विसम्) = मृणाल [अजमूल] कमल-फूल होते हैं। ये रोगों के विनाश का करण बनते हैं [मृण हिंसायाम्] और शरीर में रुधिराभिसरण के लिए सहायक होते हैं [विस प्रेरणे]। (शालूकम्) = यहाँ उत्पलकन्द दिखते हैं, (शफक:) = शफ की आकृति के कन्दविशेष होते हैं और (मुलाली) = मृणालियाँ होती है-इसप्रकार (समन्ताः) = पर्यन्तवर्तिनी चारों दिशाओ में होनेवाली (पुष्करिण्य:) = कमल की सरसियाँ [छोटे-छोटे तलाब] (त्वा उपतिष्ठन्तु) = तेरे समीप उपस्थित हों। ३. (एता:) = ये (सर्वां:) = सब (धारा:) = धारण करनेवाली मृणालियाँ (त्वा) = तुझे (उपयन्तु) = समीपता से प्राप्त हों। ये (स्वर्गे लोके) = स्वर्गतुल्य इस गृहप्रदेश में (मधुमत् पिन्वमाना:) = माधुर्ययुक्त रस का सचैन करनेवाली हों। इन विविध प्रकार के कमलों से युक्त पुष्करिणियाँ गृह को लक्ष्मीयुक्त [शोभा-सम्पन्न] बनाती हैं। लक्ष्मी का नाम ही 'पद्यालया' है। इनका केसर 'किजल्क' है [किञ्चित् जलति, जल अपवारणे] कुछ रोगादि का अपवारण करनेवाला है। इस पवित्र वातावरण में ज्ञानयज्ञ अधिक सुन्दरता से चल पाता है।
भावार्थ -
ज्ञानयज्ञ हमें लक्ष्य प्राप्ति में सर्वाधिक सहायक है। यह शक्तिप्रसारक यज्ञ हमें स्वर्ग में ले-जाता है। इस यज्ञ के लिए वातावरण को उपयुक्त बनाने के लिए हम घरों में छोटी छोटी पुष्करिणियों का आयोजन करें। उनमें खिले कमल गृह को लक्ष्मी-सम्पन्न बनाएँगे। इनका केसर नीरोगता का कारण बनता हुआ आनन्द का सञ्चार करेगा।
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