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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 39

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 5
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - द्यौः छन्दः - त्रिपदा महाबृहती सूक्तम् - सन्नति सूक्त

    दि॒व्या॑दि॒त्याय॒ सम॑नम॒न्त्स आ॑र्ध्नोत्। यथा॑ दि॒व्या॑दि॒त्याय॑ स॒मन॑मन्ने॒वा मह्यं॑ सं॒नमः॒ सं न॑मन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि । आ॒दि॒त्याय॑ । सम् । अ॒न॒म॒न् । स: । आ॒र्ध्नो॒त् । यथा॑ । दि॒वि । आ॒दि॒त्याय॑ । स॒म्ऽअन॑मन् । ए॒व । मह्य॑म् । स॒म्ऽनम॑: । सम् । न॒म॒न्तु॒ ॥३९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिव्यादित्याय समनमन्त्स आर्ध्नोत्। यथा दिव्यादित्याय समनमन्नेवा मह्यं संनमः सं नमन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवि । आदित्याय । सम् । अनमन् । स: । आर्ध्नोत् । यथा । दिवि । आदित्याय । सम्ऽअनमन् । एव । मह्यम् । सम्ऽनम: । सम् । नमन्तु ॥३९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (दिवि) = मस्तिष्करूप धुलोक में (आदित्याय) = ज्ञानसूर्य के लिए (समनमन्) = सब संनत होते हैं। (स:) = वह ज्ञानरूप सूर्य (आनोत्) = सफलता का कारण बनता है। २. (यथा) = जैसे (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (समनमन्) = संनत होते हैं-आदर के भाववाले होते हैं, (एव) = इसप्रकार (महाम) = मेरे लिए (संनमः) = अभिलषित फलों की प्राप्तियाँ (संनमन्तु) = संनत हों।

    भावार्थ -

    मस्तिष्करूप धुलोक में ज्ञानसूर्य ही प्रमुख देव है। इसके होने पर धुलोक के अन्य सब देव उपस्थित होंगे ही। ज्ञान सब अभिलषितों को प्राप्त कराता है।

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