अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
सूक्त - भृगुः
देवता - त्रैककुदाञ्जनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
नैनं॒ प्राप्नो॑ति श॒पथो॒ न कृ॒त्या नाभि॒शोच॑नम्। नैनं॒ विष्क॑न्धमश्नुते॒ यस्त्वा॒ बिभ॑र्त्याञ्जन ॥
स्वर सहित पद पाठन । ए॒न॒म् । प्र । आ॒प्नो॒ति॒ । श॒पथ॑: । न । कृ॒त्या । न । अ॒भिऽशोच॑नम् । न । ए॒न॒म् । विऽस्क॑न्धम् । अ॒श्नु॒ते॒ । य: । त्वा॒ । बिभ॑र्ति । आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒ ॥९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या नाभिशोचनम्। नैनं विष्कन्धमश्नुते यस्त्वा बिभर्त्याञ्जन ॥
स्वर रहित पद पाठन । एनम् । प्र । आप्नोति । शपथ: । न । कृत्या । न । अभिऽशोचनम् । न । एनम् । विऽस्कन्धम् । अश्नुते । य: । त्वा । बिभर्ति । आऽअञ्जन ॥९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
विषय - दुष्टता से दूर
पदार्थ -
१. हे (आञ्जन) = ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभो! (यः) = जो भी उपासक (त्वा बिभर्ति) = आपको धारण करता है-हदय में आपका ध्यान करता है, (एनम्) = इसे (शपथः न प्राप्नोति) = परकृत शपथ प्रास नहीं होती, अर्थात् यह दूसरों से दी गई गालियों से मानस-सन्तुलन नहीं खो बैठता, (न कृत्या) = न ही इसे परकृत हिंसक कर्म [छेदन-भेदन] प्राप्त होता है, (न अभिशोचनम्) = और न ही इसे शोक प्राप्त होता है। २. (एनम्) = इस पुरुष को (विष्कन्धम्) = गति का प्रतिबन्धक कोई विघ्न भी (न अश्नुते) - नहीं व्यापता। यह उपासक अपनी जीवन-यात्रा में निर्विघ्नरूप से आगे-और आगे बढ़ता जाता है। आनेवाले विप्नों को यह प्रभु-शक्ति से पार कर जाता है
भावार्थ -
प्रभु का हृदय में धारण हमें क्रोध, हिंसन, शोक व विनों का शिकार नहीं होने देता।
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