अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगुः
देवता - त्रैककुदाञ्जनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
एहि॑ जी॒वं त्राय॑माणं॒ पर्व॑तस्या॒स्यक्ष्य॑म्। विश्वे॑भिर्दे॒वैर्द॒त्तं प॑रि॒धिर्जीव॑नाय॒ कम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒हि॒ । जी॒वम् । त्राय॑माणम् । पर्व॑तस्य । अ॒सि॒ । अक्ष्य॑म् । विश्वे॑भि: । दे॒वै: । द॒त्तम् । प॒रि॒ऽधि: । जीव॑नाय । कम् ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एहि जीवं त्रायमाणं पर्वतस्यास्यक्ष्यम्। विश्वेभिर्देवैर्दत्तं परिधिर्जीवनाय कम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इहि । जीवम् । त्रायमाणम् । पर्वतस्य । असि । अक्ष्यम् । विश्वेभि: । देवै: । दत्तम् । परिऽधि: । जीवनाय । कम् ॥९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
विषय - जीवनाय परिधिः
पदार्थ -
१. हे प्रभो! आप (त्रायमाणं जीवम्) = वासनाओं व रोगों के आक्रमण से अपनी रक्षा करनेवाले जीव को (एहि) = प्राप्त होओ। आप (पर्वतस्य) = अपना पूरण करनेवाले-अपनी न्यूनताओं को दूर करनेवाले पुरुष की (अक्ष्यम् असि) = उत्तम चक्षु हैं। हृदयस्थरूपेण आप ही उसे मार्ग दर्शन कराते हैं। २. आप (विश्वेभिः देवैः दत्तम्) = सब दिव्य गुणों के द्वारा दिये गये (जीवनाय) = जीवन के लिए (परिधिः) = प्राकार हैं-मृत्यु को हम तक न पहुँचने देने के लिए आप परिधि होते हैं, इसप्रकार (कम्) = हमारे सुख का साधन बनते हैं। मृत्यु से बचाने के लिए प्रभु हमारे प्राकार बनते हैं, परन्तु प्रभु हमें प्राप्त तो तभी होते हैं जब हम दिव्य गुणों को धारण करने के लिए यत्नशील होते हैं।
भावार्थ -
प्रभु अपने रक्षण में प्रवृत्त पुरुष को प्राप्त होते हैं। अपना पूरण करनेवालों के ये मार्गदर्शक हैं। दिव्य गुणों को धारण करने से प्राप्त होते हैं। हमारे जीवन के लिए-मृत्यु को हम तक न आने देने के लिए ये प्राकार होते हैं।
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