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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वाङ्गिराः देवता - चन्द्रमाः, आपः, राज्याभिषेकः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - राज्यभिषेक सूक्त

    ए॒ना व्या॒घ्रं प॑रिषस्वजा॒नाः सिं॒हं हि॑न्वन्ति मह॒ते सौभ॑गाय। स॑मु॒द्रं न॑ सु॒भुव॑स्तस्थि॒वांसं॑ मर्मृ॒ज्यन्ते॑ द्वी॒पिन॑म॒प्स्वन्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ना । व्या॒घ्रम् । प॒रि॒ऽस॒स्व॒जा॒ना: । सिं॒हम् । हि॒न्व॒न्ति॒ । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय । स॒मु॒द्रम् । न । सु॒ऽभुव॑: । त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । म॒र्मृ॒ज्यन्ते॑ । द्वी॒पिन॑म् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: ॥८.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एना व्याघ्रं परिषस्वजानाः सिंहं हिन्वन्ति महते सौभगाय। समुद्रं न सुभुवस्तस्थिवांसं मर्मृज्यन्ते द्वीपिनमप्स्वन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एना । व्याघ्रम् । परिऽसस्वजाना: । सिंहम् । हिन्वन्ति । महते । सौभगाय । समुद्रम् । न । सुऽभुव: । तस्थिऽवांसम् । मर्मृज्यन्ते । द्वीपिनम् । अप्ऽसु । अन्त: ॥८.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 8; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (एना:) = गतमन्त्र में वर्णित ('दिव्याः पयस्वती आप:') = दिव्य पयस्वान् जल व्(याघ्रम्) = व्याघ्रवत् पराक्रमयुक्त (सिंहम्) = सहनशील व सिंह-तुल्य पराक्रमवाले राजा को (परिषस्वजाना:) = परित: आलिङ्गन करते हुए (हिन्वन्ति) = वीर्यप्रदान से प्रीणित करते हैं। ये जल (महते सौभगाय) = महान् सौभाग्य के लिए होते हैं, (समुद्रं न) = जिस प्रकार नदीरूप जल समुद्र को प्रोणित करते हैं, इसीप्रकार अभिषेक के साधनभूत जल राजा को प्रीणित करते हैं। २. (अप्सु अन्त: तस्थिवांसम्) = प्रजाओं में स्थित होनेवाले इस (द्वीपिनम्) = शार्दूल की भाँति अप्रधृष्ट राजा को (सुभुव:) = उत्तम स्थिति में होनेवाले सब प्रजाजन (ममृर्ज्यन्ते) = अभिषेक द्वारा शुद्ध करनेवाले होते हैं। अभिषेक करते हुए वे राजा को यही प्रेरणा देते हैं कि जैसे जल बाह्य मलों का विध्वंस कर रहे हैं, इसीप्रकार तेरे अन्त:मलों का भी विध्वंस हो जाए।

    भावार्थ -

    राजा को अभिषेक द्वारा यही प्रेरणा लेनी है कि वह अन्दर से भी उसी प्रकार पवित्र बने, जैसे ये जल उसे बाहर से पवित्र कर रहे हैं। राजा व्याघ्र, सिंह व द्वीपी के समान शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला हो।

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