अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - चन्द्रमाः, आपः, राज्याभिषेकः
छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - राज्यभिषेक सूक्त
या आपो॑ दि॒व्याः पय॑सा॒ मद॑न्त्य॒न्तरि॑क्ष उ॒त वा॑ पृथि॒व्याम्। तासां॑ त्वा॒ सर्वा॑साम॒पाम॒भि षि॑ञ्चामि॒ वर्च॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठया: । आप॑: । दि॒व्या: । पय॑सा । मद॑न्ति । अ॒न्तरि॑क्षे । उ॒त । वा॒ । पृ॒थि॒व्याम् । तासा॑म् । त्वा॒ । सर्वा॑साम् । अ॒पाम् । अ॒भि । सि॒ञ्चा॒मि॒ । वर्च॑सा ॥८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
या आपो दिव्याः पयसा मदन्त्यन्तरिक्ष उत वा पृथिव्याम्। तासां त्वा सर्वासामपामभि षिञ्चामि वर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठया: । आप: । दिव्या: । पयसा । मदन्ति । अन्तरिक्षे । उत । वा । पृथिव्याम् । तासाम् । त्वा । सर्वासाम् । अपाम् । अभि । सिञ्चामि । वर्चसा ॥८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
विषय - 'दिव्यान्तरिक्ष व पार्थिव' जल
पदार्थ -
१. (दिव्या:) = धुलोक में होनेवाले (या: आप:) = जो जल (पयसा) = अपने सारभूत रस से (मदन्ति) = प्राणियों को आनन्दित करते हैं और जो जल (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्षलोक में हैं, (उत वा) = अथवा (पृथिव्याम्) = पृथिवी में हैं (तासाम्) = उन (सर्वासाम्) = लोक-प्रय में अवस्थित सब - (अपाम्) = जलों के (वर्चसा) = बलकर सार से (त्वा अभिषिञ्चामि) = तुझे अभिषिक्त करता हूँ। २. राज्याभिषेक के समय सब जलों को इकट्ठा करके उनसे राजा का अभिषेक करते हैं। इसप्रकार 'राजा का शासन कहाँ तक' है-यह सबको ज्ञात हो जाता है। राजा को भी राष्ट्र में सब जलों को पास करने का प्रयत्न करना है। राजा के 'ब्रह्मज्य' बनने पर ही अनावृष्टि आदि होती है। राजा राष्ट्र में शिक्षा आदि की सुव्यवस्था करता है तो इसप्रकार की आधिदैविक आपत्तियाँ नहीं आती।
भावार्थ -
राज्याभिषेक के समय राजा को दिव्य, अन्तरिक्ष व पार्थिव-सब जलों से । अभिषिक्त करते हुए प्रेरित करते हैं कि उसे इन सब जलों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना है।
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