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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः देवता - चन्द्रमाः, आपः, राज्याभिषेकः छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - राज्यभिषेक सूक्त
    48

    या आपो॑ दि॒व्याः पय॑सा॒ मद॑न्त्य॒न्तरि॑क्ष उ॒त वा॑ पृथि॒व्याम्। तासां॑ त्वा॒ सर्वा॑साम॒पाम॒भि षि॑ञ्चामि॒ वर्च॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । आप॑: । दि॒व्या: । पय॑सा । मद॑न्ति । अ॒न्तरि॑क्षे । उ॒त । वा॒ । पृ॒थि॒व्याम् । तासा॑म् । त्वा॒ । सर्वा॑साम् । अ॒पाम् । अ॒भि । सि॒ञ्चा॒मि॒ । वर्च॑सा ॥८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या आपो दिव्याः पयसा मदन्त्यन्तरिक्ष उत वा पृथिव्याम्। तासां त्वा सर्वासामपामभि षिञ्चामि वर्चसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । आप: । दिव्या: । पयसा । मदन्ति । अन्तरिक्षे । उत । वा । पृथिव्याम् । तासाम् । त्वा । सर्वासाम् । अपाम् । अभि । सिञ्चामि । वर्चसा ॥८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजतिलक यज्ञ का उपदेश।

    पदार्थ

    (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में की (उत वा) और भी (पृथिव्याम्) पृथिवी पर की (याः) जो (दिव्याः) दिव्य (आपः) जलधाराएँ (पयसा) अपने रस से (मदन्ति) [प्राणियों को] तृप्त करती हैं, (तासाम्) उन (सर्वासाम्) सब (अपाम्) जलधाराओं के (वर्चसा) बलदायक सार से (त्वा) तुझको (अभि षिञ्चामि) अभिषेक कराता हूँ ॥५॥

    भावार्थ

    राजगद्दी पर बैठने के समय राजा को ओषधियों के रस से मिले हुए वृष्टि, नदी, कूप आदि के उत्तम जलों से स्नान करावें, जिससे उसका शरीर पुष्ट रहे और जल के समान वह अपने प्रजा को सुख पहुँचावे ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(याः) (आपः) जलधाराः (दिव्याः) श्रेष्ठाः (पयसा) रसेन। सारेण (मदन्ति) मद तृप्तियागे। तर्पयन्ति प्राणिनः (अन्तरिक्षे) आकाशे वर्तमानाः (उत वा) अपि वा (पृथिव्याम्) भूम्याम् अवस्थिताः (तासाम्) तथाविधानाम् (त्वा) राजानम् (सर्वासाम्) सर्वत्र व्याप्तानाम् (अपाम्) जलधाराणाम् (अभि षिञ्चामि) अभिषेकयुक्तं करोमि (वर्चसा) तेजसा। बलकरेण सारेण ॥

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    विषय

    'दिव्यान्तरिक्ष व पार्थिव' जल

    पदार्थ

    १. (दिव्या:) = धुलोक में होनेवाले (या: आप:) = जो जल (पयसा) = अपने सारभूत रस से (मदन्ति) = प्राणियों को आनन्दित करते हैं और जो जल (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्षलोक में हैं, (उत वा) = अथवा (पृथिव्याम्) = पृथिवी में हैं (तासाम्) = उन (सर्वासाम्) = लोक-प्रय में अवस्थित सब - (अपाम्) = जलों के (वर्चसा) = बलकर सार से (त्वा अभिषिञ्चामि) = तुझे अभिषिक्त करता हूँ। २. राज्याभिषेक के समय सब जलों को इकट्ठा करके उनसे राजा का अभिषेक करते हैं। इसप्रकार 'राजा का शासन कहाँ तक' है-यह सबको ज्ञात हो जाता है। राजा को भी राष्ट्र में सब जलों को पास करने का प्रयत्न करना है। राजा के 'ब्रह्मज्य' बनने पर ही अनावृष्टि आदि होती है। राजा राष्ट्र में शिक्षा आदि की सुव्यवस्था करता है तो इसप्रकार की आधिदैविक आपत्तियाँ नहीं आती।

    भावार्थ

    राज्याभिषेक के समय राजा को दिव्य, अन्तरिक्ष व पार्थिव-सब जलों से । अभिषिक्त करते हुए प्रेरित करते हैं कि उसे इन सब जलों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना है।

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    भाषार्थ

    (याः दिव्याः आपः) जो दिव्य जल (पयसा) सारभूत रस द्वारा (मदन्ति) प्राणियों को तृप्त करते हैं, (अन्तरिक्षे) जो अन्तरिक्ष में स्थित (उत) तथा (पृथिव्याम्) पृथिवी में स्थित हैं, (तासाम्, सर्वासाम् अपाम्) उन सब जलों के (वर्चसा) वर्चस् द्वारा (त्वा) हे राजन् ! तुझे (अभिषिञ्चामि) में अभिषिक्त करता हूँ, तेरा राज्याभिषेक करता हूँ।

    टिप्पणी

    [मदन्ति = तर्पयन्ति, मद् तृप्तियोगे (चुरादिः)। राज्याभिषेक के लिए देखें, यजुर्वेद (१०।१-४)।]

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    विषय

    राज्याभिषेक योग्य रोजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (याः) जो (दिव्याः) दिव्यगुण वाली (आप) जल-धाराएं या आप्त प्रजाएं, (पयसा) अपने पुष्टि, आरोग्यकारक जल और बल से, (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (उत वा) अथवा (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (मदन्ति) प्राणियों को हृष्ट पुष्ट करते और स्वयं प्रसन्न रहते हैं, (तासां सर्वासां) उन सब के (वर्चसा) तेज से (त्वा) तुझे (अभि पिञ्चामि) राज्य सिंहासन पर अभिषिक्त करता हूं। सब तीर्थों के और सब प्रकार के जलों से राज्याभिषेक के अवसर पर राजा को स्नान कराया जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिराः ऋषिः। राज्याभिषेकम्। चन्द्रमाः आपो वा देवताः। १, ८ भुरिक्-त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ५ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। २, ४, ६ अनुष्टुभः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ruler’s Coronation

    Meaning

    The showers of water and grace which rejoice and celebrate Divinity in the skies divinely bless and exalt humanity with milk and honey on earth. With the glory and regality of all those waters I anoint and consecrate you.

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    Translation

    The celestial waters (Apo-divyah) that satisfy the beings with their sap in the midspace, as well as on the earth, with the might and lustre of all those waters, I hereby consecrate you.

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    Translation

    O King ! I sprinkle on you the power and might of all those waters which remain in the heavenly region, which remain in firmament and which in the earth.

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    Translation

    Heaven's waters joyous in their milk, the waters of middle air, and those that earth containeth. I with the gathered power and might of all these waters sprinkle thee.

    Footnote

    ‘I’ refers to the priest. `Thee' refers to the king. Milk: the blessings which they pour forth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(याः) (आपः) जलधाराः (दिव्याः) श्रेष्ठाः (पयसा) रसेन। सारेण (मदन्ति) मद तृप्तियागे। तर्पयन्ति प्राणिनः (अन्तरिक्षे) आकाशे वर्तमानाः (उत वा) अपि वा (पृथिव्याम्) भूम्याम् अवस्थिताः (तासाम्) तथाविधानाम् (त्वा) राजानम् (सर्वासाम्) सर्वत्र व्याप्तानाम् (अपाम्) जलधाराणाम् (अभि षिञ्चामि) अभिषेकयुक्तं करोमि (वर्चसा) तेजसा। बलकरेण सारेण ॥

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