Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 8 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः देवता - चन्द्रमाः, आपः, राज्याभिषेकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राज्यभिषेक सूक्त
    53

    अ॒भि प्रेहि॒ माप॑ वेन उ॒ग्रश्चे॒त्ता स॑पत्न॒हा। आ ति॑ष्ठ मित्रवर्धन॒ तुभ्यं॑ दे॒वा अधि॑ ब्रुवन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्र । इ॒हि॒ । मा । अप॑ । वे॒न॒: । उ॒ग्र: । चे॒त्ता । स॒प॒त्न॒ऽहा । आ । ति॒ष्ठ॒ । मि॒त्र॒ऽव॒र्ध॒न॒ । तुभ्य॑म् । दे॒वा: । अधि॑ । ब्रु॒व॒न् ॥८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्रेहि माप वेन उग्रश्चेत्ता सपत्नहा। आ तिष्ठ मित्रवर्धन तुभ्यं देवा अधि ब्रुवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्र । इहि । मा । अप । वेन: । उग्र: । चेत्ता । सपत्नऽहा । आ । तिष्ठ । मित्रऽवर्धन । तुभ्यम् । देवा: । अधि । ब्रुवन् ॥८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजतिलक यज्ञ का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (उग्रः) तेजस्वी, (चेत्ता) चैतन्य स्वभाव और (सपत्नहा) शत्रुनाशक तू (अभि) सब ओर से (प्रेहि) आगे बढ़, (मा अप वेनः) पीछे न हट। (मित्रवर्धन) हे मित्रों के बढ़ाने हारे ! (आतिष्ठ) [सिंहासन वा हाथी आदि पर] आकर बैठ। (देवाः) विजय चाहनेवाले वीर विद्वानों ने (तुभ्यम्) तेरे लिये (अधि ब्रुवन्) यह अनुग्रहवचन दिया है ॥२॥

    भावार्थ

    (देवाः) मुख्य-मुख्य शूर विद्वान् लोग राजा को सहाय वचन के साथ अभिनन्दन करके राजसिंहासन और हाथी आदि यान पर बिठलावें और (मित्रवर्धन) राजा माननीय पुरुषों का आदर-मान करे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(अभि) अभितः सर्वतः (प्रेहि) प्रगच्छ (मा अप वेनः) वेनतिः कान्तिकर्मा-निघ० २।६। गतिकर्मा०-२।१४। अर्चतिकर्मा-३।१४। माप गच्छ (उग्रः) तीव्रस्वभावः (चेत्ता) चिती संज्ञाने-तृन्। चेतिता। ज्ञानवान् (सपत्नहा) अ० १।२९।५। शत्रूणां हन्ता (आतिष्ठ) राजासनं हस्त्यश्वादियानं च आरोह (मित्रवर्धन) नन्दिग्रहिपचादि०। पा० ३।१।१३४। इति वृधेर्ण्यन्तात्-ल्यु। हे मित्राणां वर्धयितः (तुभ्यम्) (देवाः) विजिगीषवो विद्वांसः (अधि ब्रुवन्) ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लङ्। अधि अब्रुवन्। अधि-वचनम् अनुग्रहवचनम् उच्चारितवन्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सपनहा, मित्रवर्धन:

    पदार्थ

    १. आचार्य राजा को राज्यसिंहासन पर बिठाता हुआ कहता है-हे राजन्! (अभिप्रेहि) = इस सिंहासन की ओर बढ़ [चल]। (मा अपवेन:) = अनिच्छा व्यक्त मत कर [वेनति: कान्तिकर्मा]। (उग्रः उद्गुर्ण) बलवाला तू शत्रूओं के लिए दुरासद [अजय्य] हो। चेता-कार्य-अकार्य के विभाग के ज्ञानवाला तू (सपत्नहा) = शत्रुओं को नष्ट करनेवला हो। २. हे (मित्रवर्धन:) = मित्रभूत राष्ट्रों का वर्धन करनेवाले राजन्! तू (आतिष्ठ) = सिंहासन पर स्थित हो और (देवा:) = देववृत्ति के ज्ञानी पुरुष (तुभ्यम्) = तेरे लिए (अधिबुवन्) = आधिक्येन उपदेश देनेवाले हों। उनके योग्य परामर्शों से तू सदा राज्यकार्यों को ठीक से करनेवाला हो। 

    भावार्थ

    राजा तेजस्वी, कार्याकार्य विभाग को समझनेवाला व शत्रुओं का संहार करनेवाला हो। मित्रों का वर्धन करनेवाला यह राजा उत्कृष्ट ज्ञानी पुरुषों से उचित परामशों को प्राप्त करता रहे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    [हे राजन् !] (अभि) राजसिंहासन की ओर (प्रेहि) गमन कर, (मा)(अप वेनः) राजकान्ति अर्थात् शोभा से अपगत हो, विहीन हो, (उग्रः) शासन में उग्ररूप, (चेत्ता) सचेत और (सपत्नहा) राज्यनिष्ठ तथा अन्य शत्रुओं का हनन करनेवाला बन। (मित्रवर्धन) राज्य में मित्रों की संख्या का वर्धन करनेवाले ! तथा मित्रराष्ट्रों के राजाओं का वर्धन करनेवाले हे राजन् ! (आ तिष्ठ) राजसिंहासन पर आ बैठ। (देवा:) राज्य के दिव्य बिद्वान् (तुभ्यम्) तेरे लिए (अधि) स्वाधिकारपूर्वक (ब्रुवन्) शासन-व्यवस्था-सम्वन्धी कथन करते रहें।

    टिप्पणी

    [सपत्न= एक पति के अधीन रहनेवाले, राज्यातर्गत शत्रु; तथा पर राष्ट्र शत्रु। वेनः=वेनति कान्तिकर्मा (निघं० २।६) तथा गतिकर्मा (भ्वादिः)।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राज्याभिषेक योग्य रोजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे राजन् ! (अभि प्रेहि) तू सब के समक्ष अग्रासन पर आ। (मा अप वेनः) कभी अपने को तुच्छता में रख कर अपनी शोभा कम मत कर, अपनी शान मत बिगाड़। तू स्वयं (उग्रः) सदा उद्यत दण्ड होकर (चेत्ता) राष्ट्र कार्यों के समस्त विभागों को जानने हारा, विद्वान् बन कर (सपत्न-हा) अपने शत्रुओं को जीत। हे (मित्र-वर्धन) अपने मित्र राजाओं की संख्या बढ़ाने हारे राजन् ! (आ तिष्ठ) सिंहासन पर विराजमान हो। (तुभ्यं) तेरे लिये (देवाः) विद्वान् लोग (अधि ब्रुवन्) उत्तम राजनैतिक उपदेश करें, उत्तम मन्त्रणा दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिराः ऋषिः। राज्याभिषेकम्। चन्द्रमाः आपो वा देवताः। १, ८ भुरिक्-त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ५ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। २, ४, ६ अनुष्टुभः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ruler’s Coronation

    Meaning

    O ruler, go forward, do not hesitate, you are blazing illustrious, giver of enlightenment, subduer of adversaries and enemies. Come, take over and be firm, bright as sun, advance the friendly powers and be exalted by friendly powers. The brilliant and most generous enlightened people exhort you.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Move forward to this (kingship). Do not give it up in disdain. Formidable, discriminating, destroyer of rivals, ascend this throne, O promoter of friends. The enlightened ones have shown favour to you

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O King! all the subjects wait on you, the crowned King. Let you enriched with the resplendency of sovereign perform your duties like the self-resplendent sun. That is the tremendous glory of the mighty Divine Power that He as the master of the universe remains in the powers of immortality.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O King, strong, good administrator, slayer of the foes, go forward, 'over not your dignity. O augmentor of thy friends, sit on the throne. May the learned instruct you in statesmanship!

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अभि) अभितः सर्वतः (प्रेहि) प्रगच्छ (मा अप वेनः) वेनतिः कान्तिकर्मा-निघ० २।६। गतिकर्मा०-२।१४। अर्चतिकर्मा-३।१४। माप गच्छ (उग्रः) तीव्रस्वभावः (चेत्ता) चिती संज्ञाने-तृन्। चेतिता। ज्ञानवान् (सपत्नहा) अ० १।२९।५। शत्रूणां हन्ता (आतिष्ठ) राजासनं हस्त्यश्वादियानं च आरोह (मित्रवर्धन) नन्दिग्रहिपचादि०। पा० ३।१।१३४। इति वृधेर्ण्यन्तात्-ल्यु। हे मित्राणां वर्धयितः (तुभ्यम्) (देवाः) विजिगीषवो विद्वांसः (अधि ब्रुवन्) ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लङ्। अधि अब्रुवन्। अधि-वचनम् अनुग्रहवचनम् उच्चारितवन्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top