अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः
देवता - चन्द्रमाः, आपः, राज्याभिषेकः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - राज्यभिषेक सूक्त
75
ए॒ना व्या॒घ्रं प॑रिषस्वजा॒नाः सिं॒हं हि॑न्वन्ति मह॒ते सौभ॑गाय। स॑मु॒द्रं न॑ सु॒भुव॑स्तस्थि॒वांसं॑ मर्मृ॒ज्यन्ते॑ द्वी॒पिन॑म॒प्स्वन्तः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ना । व्या॒घ्रम् । प॒रि॒ऽस॒स्व॒जा॒ना: । सिं॒हम् । हि॒न्व॒न्ति॒ । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय । स॒मु॒द्रम् । न । सु॒ऽभुव॑: । त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । म॒र्मृ॒ज्यन्ते॑ । द्वी॒पिन॑म् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: ॥८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
एना व्याघ्रं परिषस्वजानाः सिंहं हिन्वन्ति महते सौभगाय। समुद्रं न सुभुवस्तस्थिवांसं मर्मृज्यन्ते द्वीपिनमप्स्वन्तः ॥
स्वर रहित पद पाठएना । व्याघ्रम् । परिऽसस्वजाना: । सिंहम् । हिन्वन्ति । महते । सौभगाय । समुद्रम् । न । सुऽभुव: । तस्थिऽवांसम् । मर्मृज्यन्ते । द्वीपिनम् । अप्ऽसु । अन्त: ॥८.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजतिलक यज्ञ का उपदेश।
पदार्थ
(परिषस्वजानाः) सब ओर से चिपटे हुए लोग (एना=एनम्) इस (व्याघ्रम्) व्याघ्ररूप और (सिंहम्) सिंहसमान [पराक्रमी राजा] को (महते) बहुत ही (सौभगाय) बड़े ऐश्वर्य के लिये (हिन्वन्ति) तृप्त करते हैं, और (सुभुवः) सुन्दर जन्म वा बड़ी भूमिवाले पुरुष (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर (तस्थिवांसम्) स्थित हुए, (समुद्रम् न) समुद्र के समान् [गम्भीर स्वभाव] और (द्वीपिनम्) चीते [के तुल्य पराक्रमी राजा] को (मर्मृज्यन्ते) अनेक प्रकार से शुद्ध करते वा सजाते हैं ॥७॥
भावार्थ
अभिषेक विधि के समाप्त हो चुकने पर सब बड़े-बड़े लोग प्रशंसा करके राजा का उत्साह बढ़ावें और अलंकार आदि से उसको यथावत् शोभायमान करें ॥७॥
टिप्पणी
७−(एना) द्वितीयाटौस्स्वेनः। पा० २।४।३४। इति एतच्छब्दस्य एनादेशो द्वितीयायाम्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेः आच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इति चित्वाद् अन्तोदात्तः। एनम् (व्याघ्रम्) व्याघ्रवत् पराक्रमयुक्तम् (परिषस्वजानाः) ष्वञ्ज सङ्गे-लिटः कानच्। आलिङ्गन्तः। परितः संगच्छमानाः पुरुषाः (सिंहम्) सिचेः संज्ञायां हनुमौ कश्च। उ० ५।६२। इति षिच क्षरणे क प्रत्ययः, चस्य हकारो नुम् च। यद्वा। आद्यन्तविपर्यये। हिसि वधे-अच्। हिनस्तीति सिंहः। पञ्चास्यः। सिंहः सहनाद्धिंसेर्वा स्याद् विपरीतस्य सम्पूर्वस्य वा हन्तेः संहाय हन्तीति वा-निरु० ३।१८, सिंहतुल्यपराक्रमवन्तं राजानम् (हिन्वन्ति) हिवि प्रीणने। इदित्त्वान्नुम्। प्रीणयन्ति। तर्पयन्ति (महते) अधिकाय (सौभगाय) प्राणभृज्जातिवयोवचनोद्गात्रादिभ्योऽञ्। पा० ५।१।१२९। इति सुभग मन्त्रे, इति उद्गात्रादिषु पाठाद् भावे अञ्। ञित्यादिर्नित्यम्। पा० ६।१।१९७। इति आद्युदात्तः। सुभगत्वाय। शोभनैश्वर्याय (समुद्रम् न) समुद्रवद् गम्भीरस्वभावम् (सुभुवः) सु+भू-क्विप्। शोभना भूरुत्पत्तिर्भूमिर्वा यस्य स सुभूः शोभनजन्मानः। यद्वा। शोभनभूमयः पुरुषाः (तस्थिवांसम्) ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क्वसु। स्थितवन्तम् (मर्मृज्यन्ते) मृजू शौचालंकारयोः। यङि निपातनादभ्यासस्य रुगागमः। पुनः पुनः, अत्यर्थं वा शोधयन्ति अलंकुर्वन्ति वा (द्वीपिनम्) द्वि+ई गतौ-प प्रत्ययः। द्वौ वर्णौ ईयते द्वीपं द्विवर्णं चर्म। अत इनिठनौ। पा० ५।२।१२५। इति इनि। शार्दूलवद् अधृष्यं राजानम् (अप्सु) उदकेषु (अन्तः) मध्ये ॥
विषय
'व्याघ्र, सिंह, द्विपी'
पदार्थ
१. (एना:) = गतमन्त्र में वर्णित ('दिव्याः पयस्वती आप:') = दिव्य पयस्वान् जल व्(याघ्रम्) = व्याघ्रवत् पराक्रमयुक्त (सिंहम्) = सहनशील व सिंह-तुल्य पराक्रमवाले राजा को (परिषस्वजाना:) = परित: आलिङ्गन करते हुए (हिन्वन्ति) = वीर्यप्रदान से प्रीणित करते हैं। ये जल (महते सौभगाय) = महान् सौभाग्य के लिए होते हैं, (समुद्रं न) = जिस प्रकार नदीरूप जल समुद्र को प्रोणित करते हैं, इसीप्रकार अभिषेक के साधनभूत जल राजा को प्रीणित करते हैं। २. (अप्सु अन्त: तस्थिवांसम्) = प्रजाओं में स्थित होनेवाले इस (द्वीपिनम्) = शार्दूल की भाँति अप्रधृष्ट राजा को (सुभुव:) = उत्तम स्थिति में होनेवाले सब प्रजाजन (ममृर्ज्यन्ते) = अभिषेक द्वारा शुद्ध करनेवाले होते हैं। अभिषेक करते हुए वे राजा को यही प्रेरणा देते हैं कि जैसे जल बाह्य मलों का विध्वंस कर रहे हैं, इसीप्रकार तेरे अन्त:मलों का भी विध्वंस हो जाए।
भावार्थ
राजा को अभिषेक द्वारा यही प्रेरणा लेनी है कि वह अन्दर से भी उसी प्रकार पवित्र बने, जैसे ये जल उसे बाहर से पवित्र कर रहे हैं। राजा व्याघ्र, सिंह व द्वीपी के समान शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला हो।
विशेष
राजा से रक्षित राष्ट्र में प्रजा अभ्युदय व निःश्रेयस को सिद्ध करने के लिए यत्नशील होती है, प्रभु का पूजन करती हुई तपोमय जीवन बिताती है। अगले सूक्त का ऋषि यह तपस्वी 'भृगु' ही है [भ्रस्ज पाके]। यह परमेश्वर को सम्पूर्ण संसार को गति देनेवाले के रूप में देखता है। यह 'आञ्जन' गति देनेवाला प्रभु ही इस सूक्त का देवता है।
भाषार्थ
(व्याघ्रम्) व्याघ्रवत् पराक्रम करनेवाले राजा का (परिषस्वजाना:) सब ओर आलिङ्गन करते हुए (इमाः) ये आपः अर्थात् जल, (सिंहम्) सिंह-तुल्य पराक्रमी राजा को (महते सौभगाय) महान् उत्तमैश्वर्य तथा महाशोभा के लिए (हिन्वन्ति) प्रीणित या प्रेरित करते हैं। (सुभुव:) उत्तम स्थितिवाले प्रजाजन, (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर (तस्थिवांसम्) स्थित हुए (द्वीपिनम्) चीते को (मर्मृज्यन्ते) बार-बार जल द्वारा शुद्ध-पवित्र करते हैं, (न) जैसेकि (सुभुवः) उत्तम भूमि के जल (समुद्रम्) समुद्र को पवित्र करते हैं।
टिप्पणी
[पराक्रम की उग्रता के भिन्न-भिन्न स्वरूपों को दर्शाने के लिए व्याघ्र, सिंह तथा द्वीपी का कथन किया है। परिषस्वजाना:=परि+ष्वञ्जसंगे+लिटि कानच्। हिन्वन्ति=हिवि प्रीणनार्थः। मर्मृज्यन्ते=मृजूष शुद्धौ (अदादिः) अभ्यासस्य रुक्-आगमः।]
विषय
राज्याभिषेक योग्य रोजा का वर्णन।
भावार्थ
(एनाः) ये समस्त प्रजाएं जिनकी प्रतिनिधि भूत ये समस्त दिव्य जल-धाराएं या ‘आपः’ हैं वे (व्याघ्रम्) बाघ के समान पराक्रमी और (सिंहम्) सिंह के समान शूरवीर राजा को (परिसस्वजाना) आश्रय करती हुई (महते सौभगाय) बड़े भारी सौभाग्य, राज्य-सिंहासन पर बैठ कर शासन कार्य के लिये (हिन्बन्ति) प्रेरित करती या उसको कर प्रदान करके परिपुष्ट करती हैं। जिस प्रकार (तस्थिवांसम्) स्थिर, गम्भीर (समुद्रम्) समुद्र को समस्त नदी आदि जल से पूर्ण करते हैं, उसी प्रकार (सु-भुवः) उत्तम भूमियां (द्वीपिनं) शार्दूल के समान पराक्रमी और (अप्सु भन्तः तस्थिवांसं) अभिषेक जलों के समान उत्तम प्रजाओं के बीच खड़े हुए राजा को (मर्मृज्यन्ते) अङ्ग प्रत्यन में स्नान कराती हैं और छत्र, चामर आदि से सुशोभित करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाङ्गिराः ऋषिः। राज्याभिषेकम्। चन्द्रमाः आपो वा देवताः। १, ८ भुरिक्-त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ५ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। २, ४, ६ अनुष्टुभः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ruler’s Coronation
Meaning
Showers of divine grace and human praise replete with love and admiration consecrate and inspire the ruler, regal harbinger of milk and honey and generous streams of water for human fulfilment, so that he may rise and win high glory and good fortune for himself and his people. And just as blessed streams of holy lands do homage to the deep sea, so noble people do homage of consecration and loyalty to the ruler abiding firmly, holding the earth in the midst of the seas and seated at the centre of social dynamics.
Translation
‘These celestial waters embracing affectionately the tiger (like king) urge the lion (like king) to vast fortunes (great prosperity). These of good origin (besubhu ones) cleanse the leopard (like king) standing amidst the waters, as if it were an ocean.
Translation
These subjects accepting the King who is as strong as a tiger and as mighty as a lion, rouse him for this great sovereignty of the state. As the rivers fill up the calm and quiet ocean in the same manner the subjects and territorial integrities, with the coronation water bathe the King who is sitting amongst them like a lion.
Translation
These, compassing the tiger, rouse the lion to great joy and bliss. As strong floods purify the standing ocean, so men adorn the leopard in the waters.
Footnote
These: The priests who conduct the ceremony. The tiger, the lion, the leopard: the strong and valiant king. In the waters: with which he is sprinkled in the Abbeshaka or sprinkling ceremony, wherewith the king is consecrated.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(एना) द्वितीयाटौस्स्वेनः। पा० २।४।३४। इति एतच्छब्दस्य एनादेशो द्वितीयायाम्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेः आच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इति चित्वाद् अन्तोदात्तः। एनम् (व्याघ्रम्) व्याघ्रवत् पराक्रमयुक्तम् (परिषस्वजानाः) ष्वञ्ज सङ्गे-लिटः कानच्। आलिङ्गन्तः। परितः संगच्छमानाः पुरुषाः (सिंहम्) सिचेः संज्ञायां हनुमौ कश्च। उ० ५।६२। इति षिच क्षरणे क प्रत्ययः, चस्य हकारो नुम् च। यद्वा। आद्यन्तविपर्यये। हिसि वधे-अच्। हिनस्तीति सिंहः। पञ्चास्यः। सिंहः सहनाद्धिंसेर्वा स्याद् विपरीतस्य सम्पूर्वस्य वा हन्तेः संहाय हन्तीति वा-निरु० ३।१८, सिंहतुल्यपराक्रमवन्तं राजानम् (हिन्वन्ति) हिवि प्रीणने। इदित्त्वान्नुम्। प्रीणयन्ति। तर्पयन्ति (महते) अधिकाय (सौभगाय) प्राणभृज्जातिवयोवचनोद्गात्रादिभ्योऽञ्। पा० ५।१।१२९। इति सुभग मन्त्रे, इति उद्गात्रादिषु पाठाद् भावे अञ्। ञित्यादिर्नित्यम्। पा० ६।१।१९७। इति आद्युदात्तः। सुभगत्वाय। शोभनैश्वर्याय (समुद्रम् न) समुद्रवद् गम्भीरस्वभावम् (सुभुवः) सु+भू-क्विप्। शोभना भूरुत्पत्तिर्भूमिर्वा यस्य स सुभूः शोभनजन्मानः। यद्वा। शोभनभूमयः पुरुषाः (तस्थिवांसम्) ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क्वसु। स्थितवन्तम् (मर्मृज्यन्ते) मृजू शौचालंकारयोः। यङि निपातनादभ्यासस्य रुगागमः। पुनः पुनः, अत्यर्थं वा शोधयन्ति अलंकुर्वन्ति वा (द्वीपिनम्) द्वि+ई गतौ-प प्रत्ययः। द्वौ वर्णौ ईयते द्वीपं द्विवर्णं चर्म। अत इनिठनौ। पा० ५।२।१२५। इति इनि। शार्दूलवद् अधृष्यं राजानम् (अप्सु) उदकेषु (अन्तः) मध्ये ॥
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