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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः देवता - चन्द्रमाः, आपः, राज्याभिषेकः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राज्यभिषेक सूक्त
    53

    आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ अभूषं॒ छ्रियं॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः। म॒हत्तद्वृष्णो॒ असु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पो अ॒मृता॑नि तस्थौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽतिष्ठ॑न्तम् । परि॑ । विश्वे॑ । अ॒भू॒ष॒न् । श्रिय॑म् । वसा॑न: । च॒र॒ति॒ । स्वऽरो॑चि: । म॒हत् । तत् । वृष्ण॑: । असु॑रस्य । नाम॑ । आ । वि॒श्वऽरू॑प: । अ॒मृता॑नि । त॒स्थौ॒ ॥८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आतिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषं छ्रियं वसानश्चरति स्वरोचिः। महत्तद्वृष्णो असुरस्य नामा विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽतिष्ठन्तम् । परि । विश्वे । अभूषन् । श्रियम् । वसान: । चरति । स्वऽरोचि: । महत् । तत् । वृष्ण: । असुरस्य । नाम । आ । विश्वऽरूप: । अमृतानि । तस्थौ ॥८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजतिलक यज्ञ का उपदेश।

    पदार्थ

    (विश्वे) सब जनों ने (आतिष्ठन्तम्) [सिंहासन आदि पर] बैठते हुए राजा को (परि अभूषन्) सब प्रकार से अंलकृत वा प्राप्त किया है। (श्रियम्) राजलक्ष्मी को (वसानः) धारण करता हुआ, (स्वरोचिः) स्वयं प्रकाशमान यह (चरति) वर्त्तमान होता है। (वृष्णः) उस ऐश्वर्यवाले (असुरस्य) प्राणदाता का (तत्) वह (महत्) विशाल (नाम) नाम है। (विश्वरूपः) अनेक प्रकार के स्वभाववाले उसने (अमृतानि) अनश्वर सुखों को (आ तस्थौ) प्राप्त किया है ॥३॥

    भावार्थ

    प्रजागण सिंहासन पर बैठे हुए राजा को भेंट आदि देकर सेवा करें, और राजा यथायोग्य सबसे वर्त्ताव करके आनन्द प्राप्त करे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(आतिष्ठन्तम्) सिंहासनादिकम् आरोहन्तम् (परि) परितः सर्वतः (विश्वे) विश्वे देवाः। सर्वे शूरविद्वांसः (अभूषन्) भूष अलंकारे लुङ्। यद्वा, भू प्राप्तौ छान्दसे लुङि सिप्। अलंकृतवन्तः। प्राप्तवन्तः (श्रियम्) क्विब् वचिप्रच्छिश्रिस्रु०। उ० २।५७। इति श्रिञ् सेवने-क्विप् दीर्घश्च। श्रयति पुरुषार्थिनं सा श्रीः। राजलक्ष्मीम्। सम्पत्तिम् (वसानः) वस आच्छादने-लटः शानच्। धारयन् (चरति) राज्यपालने वर्तते (स्वरोचिः) वसौ रुचेः संज्ञायाम्। उ० २।१११। रुच दीप्तौ अभिप्रीप्तौ च-इसिन्। स्वयंरोचमानो दीप्यमानः। स्वरुचिः। स्वतन्त्रः (महत्) अधिकम्। विशालम् (तत्) प्रसिद्धम् (वृष्णः) अ० १।१२।१। वर्षकस्य। ऐश्वर्ययुक्तस्य। इन्द्रस्य (असुरस्य) अ० १।१०।१। दीप्यमानस्य। प्राणप्रदस्य। शूरस्य (नाम) अ० १।२४।३। म्ना अभ्यासे-मनिन्। अभ्यस्तं नामधेयम्। संज्ञा। (आ) समन्तात् (विश्वरूपः) शत्रुमित्रकलत्रादिषु नानास्वभावः। यथायोग्यं वर्त्तमानः (अमृतानि) अनश्वरसुखानि (आ तस्थौ) आरूढवान्। प्राप्तवान् ॥

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    विषय

    श्रियं वसानः

    पदार्थ

    १.(आतिष्ठन्तम्) = सिंहासन पर आरुढ़ होते हुए इस राजा को (विश्वे) = सब (परि-अभूषन) = चारों ओर से सेवित करनेवाले हों [परितः भवन्तु, वर्तन्ताम्, सेवन्ताम्]। (श्रियं वसानः) = राज्यलक्ष्मी को धारण करता हुआ यह राजा (स्वरोचिः) = स्वायत्त दीसिवाला-तेजस्विता से चमकता हुआ चरति-राज्य का परिपालन करता है। २. इस (वृष्ण:) = प्रजा पर सुखों का सेचन करनेवाले (असुरस्य) = शत्रुओं का प्रक्षेपण करनेवाले इस राजा का (नाम) = यश (महत्) = महान् है। इसके नाम श्रवण से ही शत्रु भयभीत होकर भाग उठते हैं। यह (विश्वरूप:) = शत्रु, मित्र, कलत्र आदि में नानाविध रूपवाला होता हुआ-सबके साथ तदनुरूप व्यवहार करता हुआ (अमृतानि) = अमृतत्व के प्रापक-राष्ट्र के अविनाश के साधनभूत-दण्ड युद्ध आदि कर्मों को (आतस्थौ) = [आतिष्ठतु, आचरतु] स्थिरता से करता है।

    भावार्थ

    सिंहासनारूढ़ राजा का सब प्रजावर्ग सेवन करता है। यह राजा दीप्तिवाला होता हुआ विचरता है। इसके नाम से ही शत्रु भयभीत हो जाते है। यह उपयुक्त कामों को करता हुआ प्रजा को अमर बनाने का प्रयत्न करता है।

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    भाषार्थ

    (आ तिष्ठन्तम्) सिंहासन पर आ स्थित हुए को, (विश्वे) सब प्रजाजन, (अभूषन्) अलंकृत करते हैं, (श्रियम्, वसान:) शोभायुक्त वस्त्रों को पहनता हुआ [राजा], (स्बरोचि:) निज स्वाभाविक दीप्तिवाला हुआ (चरति) राज्य में विचरता है। (वृष्णः) सुखबर्षा करनेवाले, (असुरस्य) प्रज्ञावान् परमेश्वर का (तत् नाम) वह नाम (महत्) महान् है, (विश्वरूपः) अर्थात वह "जोकि विश्व को रूप देता" है, और (अमृतानि) अमृत तत्त्वों पर (आतस्थौ) सर्वत्र अधिष्ठाता रूप में स्थित है।

    टिप्पणी

    [मंत्र के उत्तरार्ध में परमेश्वर का वर्णन हुआ है। इस वर्णन द्वारा राजा को सूचित किया है कि तू परमेश्वरीय सिंहासन पर स्थित हुआ है, अतः प्रजा पर सदा सुख की वर्षा करते रहना, और प्रज्ञावान हुआ, राज्य को समग्र रूपोवाला करना, तथा अमृत होने के साधनों पर सदा आस्था करना। राजा परमेश्वरीय सिंहासन पर स्थित हुआ है। तथा "स त्वायमह्वत् स्वे सधस्थे स देवान् यक्षत् स उ कल्पयाद् विशः।" (अथर्व० ३।४।६)। अर्थात् उस परमेश्वर ने तेरा आह्वान किया है, साथ१ बैठने के सिंहासन पर, (स:) वह (देवान्) देवों को (मन्त्र २) (यक्षत्) राष्ट्रयज्ञ के लिए संगत करे, वही प्रजाओं को सामर्थ्यवान् करे। इस कथन द्वारा यह सुना है कि तेरे राष्ट्र यज्ञ में सामर्थ्य प्रदान करनेवाला परमेश्वर तेरा सहायक है, तू परमेश्वर के सदृश राज्य को सामर्थ्यवाला कर। कल्पयात्= कल्पयतेलेटि आडागमः।] [१. अथवा यह अभिप्राय है कि राज्य का राजा तो परमेश्वर है, जोकि राजसिंहासन पर बैठा है, उसने तुझे एजेंट बनाकर राजारान पर अपने साथ बिठाया है, अतः परमेश्वरीय इच्छानुसार राज्य का शासन करना।]

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    विषय

    राज्याभिषेक योग्य रोजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे राजन् ! (आ-तिष्ठन्तं) राज्य सिंहासन पर बैठे हुए तुझ को, (विश्वे) समस्त विद्वान् प्रजागण (परि अभूषन्) चारों ओर से घेर कर सभा में विराजमान हों, और तू (स्वरोचिः) स्वयं प्रकाश, सूर्य के समान (श्रियं वसानः) राजलक्ष्मी को धारण करता हुआ (चरति) सर्वत्र विचरण कर या राज्य का भोग कर। (वृष्णः) प्रजा पर नाना सुखों के वर्षक और (असुरस्य) शत्रुओं के नाशक राजा का ही (तत् महत् नाम) वह बड़ा भारी यश है कि (विश्व-रूपः) राष्ट्र के समग्र अधिकारियों में नानारूप होकर वह (अमृतानि) अमर नामों, पदों और यशों को (आतस्थौ) प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिराः ऋषिः। राज्याभिषेकम्। चन्द्रमाः आपो वा देवताः। १, ८ भुरिक्-त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ५ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। २, ४, ६ अनुष्टुभः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ruler’s Coronation

    Meaning

    Seated in position, let all the best people attend and exalt you who, vested with glory, refulgent with your essential merit and power, move on with your royal powers and obligations across the dominion. It is truly the glory of the great and generous lord of life that he, of universal form and purpose, stands by all the immortals of existence. (Similarly, it is the power and obligation of the ruler that his presence be felt everywhere and he stand by all the immortal values of life in the dominion. This very divine obligation of the ruler was interpreted as the divine right of the king in history.)

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    Translation

    All decorate him, ascending the throne, clothed in glory, he moves about shining by himself. Great is the name of the mighty vanquisher of foes. In this various capacities he goes through his various duties earning immortality for him.

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    Translation

    O King! come forward, turn not back in scorn, be strong guardian of people and the slayer of enemies. O gladdener of friends! come and sit and let learned persons preach you about your duties.

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    Translation

    O King, seated on the throne, let all learned subjects serve thee all around. Thou, self-resplendent moveth in thy state, endowed with glory. That is thy lofty nature, who is the subduer of foes and the nourisher of his subjects. He, the master of manifold qualities, Math gained immortal powers!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(आतिष्ठन्तम्) सिंहासनादिकम् आरोहन्तम् (परि) परितः सर्वतः (विश्वे) विश्वे देवाः। सर्वे शूरविद्वांसः (अभूषन्) भूष अलंकारे लुङ्। यद्वा, भू प्राप्तौ छान्दसे लुङि सिप्। अलंकृतवन्तः। प्राप्तवन्तः (श्रियम्) क्विब् वचिप्रच्छिश्रिस्रु०। उ० २।५७। इति श्रिञ् सेवने-क्विप् दीर्घश्च। श्रयति पुरुषार्थिनं सा श्रीः। राजलक्ष्मीम्। सम्पत्तिम् (वसानः) वस आच्छादने-लटः शानच्। धारयन् (चरति) राज्यपालने वर्तते (स्वरोचिः) वसौ रुचेः संज्ञायाम्। उ० २।१११। रुच दीप्तौ अभिप्रीप्तौ च-इसिन्। स्वयंरोचमानो दीप्यमानः। स्वरुचिः। स्वतन्त्रः (महत्) अधिकम्। विशालम् (तत्) प्रसिद्धम् (वृष्णः) अ० १।१२।१। वर्षकस्य। ऐश्वर्ययुक्तस्य। इन्द्रस्य (असुरस्य) अ० १।१०।१। दीप्यमानस्य। प्राणप्रदस्य। शूरस्य (नाम) अ० १।२४।३। म्ना अभ्यासे-मनिन्। अभ्यस्तं नामधेयम्। संज्ञा। (आ) समन्तात् (विश्वरूपः) शत्रुमित्रकलत्रादिषु नानास्वभावः। यथायोग्यं वर्त्तमानः (अमृतानि) अनश्वरसुखानि (आ तस्थौ) आरूढवान्। प्राप्तवान् ॥

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