अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - चन्द्रमाः, आपः, राज्याभिषेकः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राज्यभिषेक सूक्त
आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ अभूषं॒ छ्रियं॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः। म॒हत्तद्वृष्णो॒ असु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पो अ॒मृता॑नि तस्थौ ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽतिष्ठ॑न्तम् । परि॑ । विश्वे॑ । अ॒भू॒ष॒न् । श्रिय॑म् । वसा॑न: । च॒र॒ति॒ । स्वऽरो॑चि: । म॒हत् । तत् । वृष्ण॑: । असु॑रस्य । नाम॑ । आ । वि॒श्वऽरू॑प: । अ॒मृता॑नि । त॒स्थौ॒ ॥८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आतिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषं छ्रियं वसानश्चरति स्वरोचिः। महत्तद्वृष्णो असुरस्य नामा विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ ॥
स्वर रहित पद पाठआऽतिष्ठन्तम् । परि । विश्वे । अभूषन् । श्रियम् । वसान: । चरति । स्वऽरोचि: । महत् । तत् । वृष्ण: । असुरस्य । नाम । आ । विश्वऽरूप: । अमृतानि । तस्थौ ॥८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
विषय - श्रियं वसानः
पदार्थ -
१.(आतिष्ठन्तम्) = सिंहासन पर आरुढ़ होते हुए इस राजा को (विश्वे) = सब (परि-अभूषन) = चारों ओर से सेवित करनेवाले हों [परितः भवन्तु, वर्तन्ताम्, सेवन्ताम्]। (श्रियं वसानः) = राज्यलक्ष्मी को धारण करता हुआ यह राजा (स्वरोचिः) = स्वायत्त दीसिवाला-तेजस्विता से चमकता हुआ चरति-राज्य का परिपालन करता है। २. इस (वृष्ण:) = प्रजा पर सुखों का सेचन करनेवाले (असुरस्य) = शत्रुओं का प्रक्षेपण करनेवाले इस राजा का (नाम) = यश (महत्) = महान् है। इसके नाम श्रवण से ही शत्रु भयभीत होकर भाग उठते हैं। यह (विश्वरूप:) = शत्रु, मित्र, कलत्र आदि में नानाविध रूपवाला होता हुआ-सबके साथ तदनुरूप व्यवहार करता हुआ (अमृतानि) = अमृतत्व के प्रापक-राष्ट्र के अविनाश के साधनभूत-दण्ड युद्ध आदि कर्मों को (आतस्थौ) = [आतिष्ठतु, आचरतु] स्थिरता से करता है।
भावार्थ -
सिंहासनारूढ़ राजा का सब प्रजावर्ग सेवन करता है। यह राजा दीप्तिवाला होता हुआ विचरता है। इसके नाम से ही शत्रु भयभीत हो जाते है। यह उपयुक्त कामों को करता हुआ प्रजा को अमर बनाने का प्रयत्न करता है।
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