Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 8

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वाङ्गिराः देवता - चन्द्रमाः, आपः, राज्याभिषेकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राज्यभिषेक सूक्त

    अ॒भि त्वा॒ वर्च॑सासिच॒न्नापो॑ दि॒व्याः पय॑स्वतीः। यथासो॑ मित्र॒वर्ध॑न॒स्तथा॑ त्वा सवि॒ता क॑रत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॒ । वर्च॑सा । अ॒सि॒च॒न् । आप॑: । दि॒व्या: । पय॑स्वती: । यथा॑ । अस॑: । मि॒त्र॒ऽवर्ध॑न: । तथा॑ । त्वा॒ । स॒वि॒ता । क॒र॒त् ॥८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वा वर्चसासिचन्नापो दिव्याः पयस्वतीः। यथासो मित्रवर्धनस्तथा त्वा सविता करत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्वा । वर्चसा । असिचन् । आप: । दिव्या: । पयस्वती: । यथा । अस: । मित्रऽवर्धन: । तथा । त्वा । सविता । करत् ॥८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 8; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. हे राजन्! (दिव्याः) = आकाश से होनेवाले (पयस्वती:) = रसमय व आप्यायन के हेतुभूत (आप:) = जलों ने (त्वा) = तुझे (वर्चसा) = रोग-निवारक शक्ति से (अभि असिचन्) = सर्वतः सिक्त किया है। २. अभिषिक्त होने पर (सविता) = वह प्रेरक प्रभु (त्वा) = तुझे (तथाकरत्) = इसप्रकार बनाये-ऐसी क्षमता प्राप्त कराए कि (यथा) = जिससे तू (मित्रवर्धन: अस:) = मित्रों का वर्धन करनेवाला हो।

    भावार्थ -

    दिव्य जलों के तेज से अभिषिक्त होकर राजा शक्तिशाली बनता है। प्रभु की प्रेरणा के अनुसार कार्य करता हुआ यह मित्रों का वर्धन करनेवाला होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top