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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वाङ्गिराः देवता - चन्द्रमाः, आपः, राज्याभिषेकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राज्यभिषेक सूक्त

    अ॒भि प्रेहि॒ माप॑ वेन उ॒ग्रश्चे॒त्ता स॑पत्न॒हा। आ ति॑ष्ठ मित्रवर्धन॒ तुभ्यं॑ दे॒वा अधि॑ ब्रुवन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्र । इ॒हि॒ । मा । अप॑ । वे॒न॒: । उ॒ग्र: । चे॒त्ता । स॒प॒त्न॒ऽहा । आ । ति॒ष्ठ॒ । मि॒त्र॒ऽव॒र्ध॒न॒ । तुभ्य॑म् । दे॒वा: । अधि॑ । ब्रु॒व॒न् ॥८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्रेहि माप वेन उग्रश्चेत्ता सपत्नहा। आ तिष्ठ मित्रवर्धन तुभ्यं देवा अधि ब्रुवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्र । इहि । मा । अप । वेन: । उग्र: । चेत्ता । सपत्नऽहा । आ । तिष्ठ । मित्रऽवर्धन । तुभ्यम् । देवा: । अधि । ब्रुवन् ॥८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 8; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. आचार्य राजा को राज्यसिंहासन पर बिठाता हुआ कहता है-हे राजन्! (अभिप्रेहि) = इस सिंहासन की ओर बढ़ [चल]। (मा अपवेन:) = अनिच्छा व्यक्त मत कर [वेनति: कान्तिकर्मा]। (उग्रः उद्गुर्ण) बलवाला तू शत्रूओं के लिए दुरासद [अजय्य] हो। चेता-कार्य-अकार्य के विभाग के ज्ञानवाला तू (सपत्नहा) = शत्रुओं को नष्ट करनेवला हो। २. हे (मित्रवर्धन:) = मित्रभूत राष्ट्रों का वर्धन करनेवाले राजन्! तू (आतिष्ठ) = सिंहासन पर स्थित हो और (देवा:) = देववृत्ति के ज्ञानी पुरुष (तुभ्यम्) = तेरे लिए (अधिबुवन्) = आधिक्येन उपदेश देनेवाले हों। उनके योग्य परामर्शों से तू सदा राज्यकार्यों को ठीक से करनेवाला हो। 

    भावार्थ -

    राजा तेजस्वी, कार्याकार्य विभाग को समझनेवाला व शत्रुओं का संहार करनेवाला हो। मित्रों का वर्धन करनेवाला यह राजा उत्कृष्ट ज्ञानी पुरुषों से उचित परामशों को प्राप्त करता रहे।

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