अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
सूक्त - भृगुः
देवता - त्रैककुदाञ्जनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आञ्जन सूक्त
अ॑सन्म॒न्त्राद्दु॒ष्वप्न्या॑द्दुष्कृ॒ताच्छम॑लादु॒त। दु॒र्हार्द॒श्चक्षु॑षो घो॒रात्तस्मा॑न्नः पाह्याञ्जन ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स॒त्ऽम॒न्त्रात् । दु॒:ऽस्वप्न्या॑त् । दु॒:ऽकृ॒तात् । शम॑लात् । उ॒त । दु॒:ऽहार्द॑: । चक्षु॑ष: । घो॒रात् । तस्मा॑त् । न॒: । पा॒हि॒ । आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒ ॥९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
असन्मन्त्राद्दुष्वप्न्याद्दुष्कृताच्छमलादुत। दुर्हार्दश्चक्षुषो घोरात्तस्मान्नः पाह्याञ्जन ॥
स्वर रहित पद पाठअसत्ऽमन्त्रात् । दु:ऽस्वप्न्यात् । दु:ऽकृतात् । शमलात् । उत । दु:ऽहार्द: । चक्षुष: । घोरात् । तस्मात् । न: । पाहि । आऽअञ्जन ॥९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 6
विषय - दुष्टता से दूर
पदार्थ -
१. हे (आञ्जन) = ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभो! आप (असत् मन्त्रात्) = असत्य मन्त्रणा से कुविचारों से (न: पाहि) = हमें बचाइए। हम कभी कुविचारों में न पड़ जाएँ। (दुष्वप्यात्) = अशुभ स्वप्नों के कारणभूत असन्मन्त्रों से हम सदा दूर रहें, अशुभ विचारों के कारण हमें बुरे स्वप्न ही न आते रहें। (उत) = और शम् (अलात्) = शान्ति का निवारण करनेवाले-सतत अशान्ति के कारणभूत (दुष्कृतात्) = दुष्कर्मों से हमें बचाइए। ३. (दुहर्दिः) = दौर्मनस्य से तथा (घोरात् चक्षुसा) = क्रोधभरी आँख से (तस्मात्) = अनुक्रम से उन सबसे आप हमें बचाइए। हम कभी दौर्मनस्य से युक्त न हों। हमारी आँख कभी क्रोध को न उगल रही हो।
भावार्थ -
प्रभु की उपासना हमें बुरे स्वानों के कारणभूत दुर्विचारों से बचाती है। यह उपासना ही हमें शान्ति के ध्वंसक दुष्कर्मों से दूर रखती है तथा इसी उपासना से हम दुष्ट हृदयता व क्रोध-वर्षिणी आँखों से बचे रहते हैं।
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