अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जातवेदा अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त
समि॑द्धो अ॒द्य मनु॑षो दुरो॒णे दे॒वो दे॒वान्य॑जसि जातवेदः। आ च॒ वह॑ मित्रमहश्चिकि॒त्वान्त्वं दू॒तः क॒विर॑सि॒ प्रचे॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑ध्द: । अ॒द्य । मनु॑ष: । दु॒रो॒णे । दे॒व: । दे॒वान् । य॒ज॒सि॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: ।आ । च॒ । वह॑ । मि॒त्र॒ऽम॒ह॒: । चि॒कि॒त्वान् । त्वम् । दू॒त: । क॒वि: । अ॒सि॒ । प्रऽचे॑ता: ॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धो अद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेदः। आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइध्द: । अद्य । मनुष: । दुरोणे । देव: । देवान् । यजसि । जातऽवेद: ।आ । च । वह । मित्रऽमह: । चिकित्वान् । त्वम् । दूत: । कवि: । असि । प्रऽचेता: ॥१२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु का दूत
पदार्थ -
१. (अद्य) = आज (मनुषः) = विचारपूर्वक कर्म करनेवाला व्यक्ति मनुष्य के (दुरोणे)= इस शरीररूप गृह में (समिद्धः) = ज्ञान को अत्यन्त दौप्तिवाला बना है। जहाँ इसने शरीर को सब बुराइयों से अपनीत किया है [दुर् ओण] वहाँ यह ज्ञान से दीप्त बना है। (जातवेदः) = उत्पन्न प्रज्ञानवाला अर्थात् ज्ञानी बना हुआ, (देव:) = दिव्य वृत्तिवाला होता हुआ (देवान् यजसि) = देवों का यजन करता है मान्य व्यक्तियों को आदर देता है, विद्वानों का संग करता है, उनके लिए सदा दानशील होता है। २. (मित्रमह:) = हे स्नेहयुक्त तेजस्वितावाले! तू (चिकित्वान्) = चेतनावाला होकर (आवह) = इस ज्ञान को औरों को प्राप्त करानेवाला बन। (त्वं दूत:) = तू प्रभु का सन्देशवाहक है, (कविः असि) = तू क्रान्तदर्शी है-ठीक ही ज्ञान देनेवाला है। (प्रचेता:) = तू प्रकृष्ट संज्ञानवाला है-लोगों को एक दूसरे के समीप लानेवाला है। तू लोगों को वह ज्ञान देता है जो उन्हें परस्पर मिलानेवाला होता है। इसप्रकार लोकहित करता हुआ तू अपनी सच्ची ब्रह्मनिष्ठता को प्रकट करता है।
भावार्थ -
ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति 'शरीर-गृह' को पवित्र बनाकर ज्ञान-संचय करता है, देवों के सङ्ग में रहता है, स्नेहशील व तेजस्वी बनकर लोगों को ज्ञान प्राप्त कराता है। यह बड़ा समझदार होकर प्रभु का दूत बनता है।
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