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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त

    आ सु॒ष्वय॑न्ती यज॒ते उ॒पाके॑ उ॒षासा॒नक्ता॑ सदतां॒ नि योनौ॑। दि॒व्ये योष॑णे बृह॒ती सु॑रु॒क्मे अधि॒ श्रियं॑ शुक्र॒पिशं॒ दधा॑ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । सु॒स्वय॑न्ती॒ इति॑ । य॒ज॒ते इति॑ । उ॒पाके॒ इति॑ । उ॒षसा॒नक्ता॑ । स॒द॒ता॒म् । नि । योनौ॑ । दि॒व्ये इति॑ । योष॑ण॒ इति॑ । बृ॒ह॒ती इति॑ । सु॒रु॒क्मे इति॑ सु॒ऽरु॒क्मे । अधि॑ । श्रिय॑म् । शु॒क्र॒ऽपिश॑म् । दधा॑ने॒ इति॑ ॥१२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ सुष्वयन्ती यजते उपाके उषासानक्ता सदतां नि योनौ। दिव्ये योषणे बृहती सुरुक्मे अधि श्रियं शुक्रपिशं दधाने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । सुस्वयन्ती इति । यजते इति । उपाके इति । उषसानक्ता । सदताम् । नि । योनौ । दिव्ये इति । योषण इति । बृहती इति । सुरुक्मे इति सुऽरुक्मे । अधि । श्रियम् । शुक्रऽपिशम् । दधाने इति ॥१२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. गतमन्त्र के अनुसार इन्द्रियों के उत्तम होने पर हमारे (उषासानक्ता) = दिन व रात (आ सुष्वयन्ती) = सब प्रकार से स्मयमान होते हुए [स्मयते: निरुपसर्गात् मकारस्य वकार:]-खिलते हुए, अर्थात् शरीर, मन व बुद्धि के दृष्टिकोण से विकास को प्राप्त होते हुए, (यजते) = यज्ञशील होते हुए उपाके-[उप अक् गती] प्रभु के समीप उपस्थित होनेवाले (योनौ निसदताम्) = ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति-स्थान प्रभु में नम्रता से स्थित हों। हम दिन के प्रारम्भ और रात्रि के प्रारम्भ में प्रभु की उपासना करनेवाले बनें। यह उपासना ही हमारे सर्वतोमुखी विकास का कारण बनेगी। २. ये दिन-रात हमें (दिव्ये) = प्रकाश में स्थापित करनेवाले हों। ध्यान के बाद हम स्वाध्याय अवश्य करें। (योषणे) = स्वाध्याय के द्वारा ये दिन-रात हमें बुराइयों के अमिश्रण तथा अच्छाइयों से मिश्रित करनेवाले हों। इसप्रकार ये (बृहती) = हमारा वर्धन करनेवाले हों और (सुरुक्मे) = उत्तम सुवर्ण व कान्ति को प्राप्त करानेवाले हों। ये दिन-रात हममें (शुक्रपिशम्) = [पिश to shape] वीर्य के द्वारा जिसका निर्माण होता है, उस (श्रियम्) = शोभा को (अधिदधाने) = आधिक्येन धारण करनेवाले हों। वीर्य-रक्षा से ज्ञान-अग्नि की दीप्ति के द्वारा हमारा जीवन शक्ति-सम्पन्न बनता है।

    भावार्थ -

    हमारे दिन-रात स्मयमान हों। ये दिन-रात यज्ञों में व्याप्त तथा प्रभु की उपासना में लगे हुए हमारी बुराइयों को दूर करते हुए तथा अच्छाइयों को प्राप्त कराते हुए हमें श्रीसम्पन्न करें।

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