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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त

    दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा सु॒वाचा॒ मिमा॑ना य॒ज्ञं मनु॑षो॒ यज॑ध्यै। प्र॑चो॒दय॑न्ता वि॒दथे॑षु का॒रू प्रा॒चीनं॒ ज्योतिः॑ प्र॒दिशा॑ दि॒शन्ता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्या॑ । होता॑रा । प्र॒थ॒मा । सु॒ऽवाचा॑ । मिमा॑ना । य॒ज्ञम् । मनु॑ष: । यज॑ध्यै । प्र॒ऽचो॒दय॑न्ता । वि॒दथे॑षु । का॒रू इति॑ । प्रा॒चीन॑म् । ज्योति॑: । प्र॒ऽदिशा॑ । दि॒शन्ता॑ ॥१२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्या होतारा प्रथमा सुवाचा मिमाना यज्ञं मनुषो यजध्यै। प्रचोदयन्ता विदथेषु कारू प्राचीनं ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्या । होतारा । प्रथमा । सुऽवाचा । मिमाना । यज्ञम् । मनुष: । यजध्यै । प्रऽचोदयन्ता । विदथेषु । कारू इति । प्राचीनम् । ज्योति: । प्रऽदिशा । दिशन्ता ॥१२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. हमारे प्राणापान (दैव्या होतारा) = उस देव को प्राप्त करानेवाले होते हैं। (प्रथमा) = ये इस शरीर में रहनेवाले देवों में प्रथम हैं। सवाचा उत्तम वाणीवाले हैं। प्राणापान की क्षीणता से वाणी भी क्षीण होने लगती है। (मनुषः) = इस मननशील मनुष्य के (यजध्यै) = प्रभु से मेल करने के लिए यज्ञ (मिमाना) = ये प्राणापान यज्ञों का निर्माण करते हैं। २. साधक के ये प्राणापान (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में (प्रचोदयन्ता) = प्रकृष्ट प्रेरणा प्राप्त कराते हैं, (कारू) = ये प्राणापान प्रत्येक कार्य को कलापूर्ण ढंग से करानेवाले होते हैं। प्राणसाधक के कार्यों में अनाड़ीपन नहीं टपकता। ये प्राणापान (प्रदिशा) = वेदोपदिष्ट मार्ग से (प्राचीन ज्योति:) = [प्रअञ्च्] उन्नति की साधनभूत ज्योति को अथवा सनातन ज्ञान को (दिशन्ता) = उपदिष्ट करते हैं।

    भावार्थ -

    प्राणापान की साधना हमें प्रभु से मिलाती है, ज्ञान को बढ़ाती है, हमारे कार्यों में सौन्दर्य लाती है और सनातन ज्योति का आभास कराती है।

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