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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त
    35

    दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा सु॒वाचा॒ मिमा॑ना य॒ज्ञं मनु॑षो॒ यज॑ध्यै। प्र॑चो॒दय॑न्ता वि॒दथे॑षु का॒रू प्रा॒चीनं॒ ज्योतिः॑ प्र॒दिशा॑ दि॒शन्ता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्या॑ । होता॑रा । प्र॒थ॒मा । सु॒ऽवाचा॑ । मिमा॑ना । य॒ज्ञम् । मनु॑ष: । यज॑ध्यै । प्र॒ऽचो॒दय॑न्ता । वि॒दथे॑षु । का॒रू इति॑ । प्रा॒चीन॑म् । ज्योति॑: । प्र॒ऽदिशा॑ । दि॒शन्ता॑ ॥१२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्या होतारा प्रथमा सुवाचा मिमाना यज्ञं मनुषो यजध्यै। प्रचोदयन्ता विदथेषु कारू प्राचीनं ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्या । होतारा । प्रथमा । सुऽवाचा । मिमाना । यज्ञम् । मनुष: । यजध्यै । प्रऽचोदयन्ता । विदथेषु । कारू इति । प्राचीनम् । ज्योति: । प्रऽदिशा । दिशन्ता ॥१२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रथमा) प्रख्यात, (सुवाचा) सुन्दर वाणीवाले, (दैव्या) दिव्य गुणवाले, (होतारा) दोनों दाता [अग्नि और वायु] (मनुषः) मनुष्य के (यज्ञम्) पूजनीय कर्म को (यजध्यै) पूरा करने के लिये (मिमाना) निर्माण करते हुए (विदथेषु) विज्ञानों में (प्रचोदयन्ता) प्रेरणा करते हुए, (कारू) दो शिल्पी रूप, (प्राचीनम्) प्राचीन (ज्योतिः) ज्योति (प्रदिशा) अपने अनुशासन से (दिशन्ता) देते हुए [आवें−म० ६] ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य अग्नि और वायु से उपकार लेकर स्वस्थ रहकर अनेक प्रकार के शिल्प आदि सिद्ध करके सुखी रहें ॥७॥ [दैव्या होतारा दैव्यौ होतारा वयं चाग्निरसौ च मध्यमः] निरु० ८।११। इस वचन के अनुसार (होतारा) का अर्थ अग्नि और वायु लिया गया है ॥

    टिप्पणी

    ७−(दैव्या) देव−यञ्। दिव्यगुणवन्तौ (होतारा) दैव्यौ होतारावयं चाग्निरसौ च मध्यमः−निरु० ८।११। दातारौ। अग्निवायू (प्रथमा) प्रख्यातौ (सुवाचा) सुवाचौ। सुवाण्या हेतू (मिमाना) विदधतौ (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (मनुषः) म० १। मनुष्यस्य (यजध्यै) तुमर्थे सेसेनसे। पा० ३।४।९। इति यज−शध्यैन्। यष्टुम्। यागसिद्धये (प्रचोदयन्ता) प्रेरयन्तौ (विदथेषु) विज्ञानेषु (कारू) कृवापा०। उ० १।१। इति करोतेः−उण् शिल्पिनौ यथा (प्राचीनम्) प्राक्तनम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (प्रदिशा) प्रदेशेन स्वशासनेन (दिशन्ता) प्रददतौ [आ सदताम्] इति पूर्वेणान्वयः ॥

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    विषय

    दैव्या होतारा [प्राणापान]

    पदार्थ

    १. हमारे प्राणापान (दैव्या होतारा) = उस देव को प्राप्त करानेवाले होते हैं। (प्रथमा) = ये इस शरीर में रहनेवाले देवों में प्रथम हैं। सवाचा उत्तम वाणीवाले हैं। प्राणापान की क्षीणता से वाणी भी क्षीण होने लगती है। (मनुषः) = इस मननशील मनुष्य के (यजध्यै) = प्रभु से मेल करने के लिए यज्ञ (मिमाना) = ये प्राणापान यज्ञों का निर्माण करते हैं। २. साधक के ये प्राणापान (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में (प्रचोदयन्ता) = प्रकृष्ट प्रेरणा प्राप्त कराते हैं, (कारू) = ये प्राणापान प्रत्येक कार्य को कलापूर्ण ढंग से करानेवाले होते हैं। प्राणसाधक के कार्यों में अनाड़ीपन नहीं टपकता। ये प्राणापान (प्रदिशा) = वेदोपदिष्ट मार्ग से (प्राचीन ज्योति:) = [प्रअञ्च्] उन्नति की साधनभूत ज्योति को अथवा सनातन ज्ञान को (दिशन्ता) = उपदिष्ट करते हैं।

    भावार्थ

    प्राणापान की साधना हमें प्रभु से मिलाती है, ज्ञान को बढ़ाती है, हमारे कार्यों में सौन्दर्य लाती है और सनातन ज्योति का आभास कराती है।

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    भाषार्थ

    (प्रथमा=प्रथमौ) प्रख्यात या मानुषसृष्टि से प्रथम उत्पन्न, (सुवाचा=सुवाचौ) वेदमन्त्रों के उत्तम-उच्चारण में सहायक , (मनुष: यजध्यै) मनुष्य के यजन के निमित्त (यज्ञम् मिमाना=मिमानौ) यज्ञ का निर्माण करनेवाले (दैव्या होतारा=देव्यो होतारौ) दिव्य दो होता [सूर्य और चन्द्रमा ], (विदथेषु ) यज्ञों में (कारू) यज्ञ करनेवाले दो स्तोताओं (यजमान और पत्नी) को, (प्रदिशा) परमेश्वर के प्रकृष्ट निर्देशानुसार (प्राचीनम्) पूर्वकाल से आगत (ज्योतिः) ज्योति का (दिशन्ता=दिशन्तौ) प्रदान या निर्देश करते हुए (प्रचोदयन्तो), प्रेरित कर रहे हैं ।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ६ में उषा और रात्रि का वर्णन हुआ है। मन्त्र ७ में उषा और रात्रि काल के देवताओं सूर्य और चन्द्रमा का कथन हुआ है । यज्ञ हैं अग्निहोत्र और दर्श-पौर्णमास। इनका सम्पादन सूर्य और चन्द्रमा की विशेष परिस्थितियों में होता है, मानो ये दो अग्निहोत्र१ और दर्श-पौर्ण-मास२ के कालों का निर्देश करते हुए स्तोताओं को प्रेरित कर रहे हैं। विदथेषु =विदथः यज्ञः (निघं० ३।१७)। कारु: स्तोतृनाम (निघं० ३।१६)। ज्योतिः= सूर्य और चन्द्रमा की स्वकीय-स्वकीय ज्योति तथा यज्ञ सम्बन्धी सांस्कृतिक ज्योति। दिशन्ता=दिश अतिसर्जने (तुदादिः) अतिसर्जनम्=देना।] [१. अग्निहोत्रकाल; यथा सायम् अन्निहोत्रारम्भः। यावज्जीवं, अग्निहोत्रं कुर्यात्। सायं और प्रातःकाल भी। २. दर्श और पौर्णमास, चन्द्रमा के पक्षान्तों में किये जाते हैं। दर्शयाग अमावास्या के पश्चात् प्रतिपदा में किया जाता है। पौर्णमास याग पौर्णमासी पश्चात् प्रतिपदा में किया जाता है। अग्निहोत्र का काल सूर्य सम्बन्धी है और दर्श-पूर्णमास का काल चन्द्रगम्बन्धी है।]

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    विषय

    विद्वानों द्वारा आत्मा और ईश्वर के गुणों का वर्णन।

    भावार्थ

    अग्निरादित्यौ देवते। विद्वांसो वा देवताः। (दैव्या होतारा) दिव्य गुणों से युक्त होता अर्थात् यज्ञ करने वाले, (प्रथमा) श्रेष्ठ (सुवाचा) उत्तम वाणी को बोलने वाले (यजध्यै) यज्ञ करने देवार्चना करने के लिये (मनुषः यज्ञं) मनुष्य के यज्ञों को (मिमाना) करते हुए (विदथेषु) ज्ञान कर्मों में यज्ञशील ऋत्विजों को (प्र-चोदयन्ता) प्रेरित करते हुए (कारू) स्वयं भी सब कर्मों का अनुष्ठान करने वाले (प्र-दिशा) उत्कृष्ट वेद ज्ञान से-उपदिष्ट मार्ग से (प्राचीनं ज्योतिः) पूर्व दिशा में उत्पन्न सूर्य के समान तेजोमय, अति प्राचीन, या अति विशुद्ध रूप में हृदय में प्रकाशित ब्रह्म ज्योति को (दिशन्ता) साक्षात् करते हैं। अध्यात्म पक्ष में—प्राण और उदान दोनों इस शरीर के दैव्य होता हैं। वे विदथ = ज्ञान कर्मों में इन्द्रियों को प्रेरित करते और योग से ब्रह्मज्योति का साक्षात् कराते हैं। वे ही मनुष्य के देह में यज्ञ का सम्पादन करते और वाणी का उच्चारण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। जातवेदा देवता। आप्री सूक्तम्। १, २, ४-११ त्रिष्टुभः। ३ पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna of Life

    Meaning

    Two divine high priests of first order of eminence, experts of the language of science and social policy, masters of measurement and design, construction and extension of the human yajna of mutual cooperation and development, inspiring and pressing forward in plans, projects and programmes of social development, experts in theory and practice, speculation and realistic imagination, dedicated to the eternal light of Vedic values and pointing forward to wide and open-ended progress should lead the nation of humanity like Agni and Aditya, light and leadership in complementarity.

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    Translation

    The (two) invokers of the gods (daivyä-hotārā) first, wellvoiced, shaping (mimānā) the sacrifice for man (manusa) to sacrifice, urging forward at the councils (vidatha), the (two singers (kürü), pointing out forward light through the foreregion. (daivya-hotara). (Also Yv. XXIX.32)

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    Translation

    Let these two celestial twain, the fire and air which are important in the worldly objects, be the source encouraging the people in the activity of acquiring scientific knowledge accomplishing the yajna performed by man. Let these two be source of good speech and means of activity showing light of dawn in the east for our yajna performances through their operations.

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    Translation

    O men, learn fine arts from two skilled persons, who are competent amongst the learned, charitably disposed, well known, sweet voiced, executors of projects, inducers of men to scientific knowledge, and acts of sacrifice, preachers of the doctrines of the Vedas, and expounders of mechanical knowledge.

    Footnote

    The word कारू in the verse means two persons, one of whom is skilled in teaching fine arts, and the other is expert in handicrafts.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(दैव्या) देव−यञ्। दिव्यगुणवन्तौ (होतारा) दैव्यौ होतारावयं चाग्निरसौ च मध्यमः−निरु० ८।११। दातारौ। अग्निवायू (प्रथमा) प्रख्यातौ (सुवाचा) सुवाचौ। सुवाण्या हेतू (मिमाना) विदधतौ (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (मनुषः) म० १। मनुष्यस्य (यजध्यै) तुमर्थे सेसेनसे। पा० ३।४।९। इति यज−शध्यैन्। यष्टुम्। यागसिद्धये (प्रचोदयन्ता) प्रेरयन्तौ (विदथेषु) विज्ञानेषु (कारू) कृवापा०। उ० १।१। इति करोतेः−उण् शिल्पिनौ यथा (प्राचीनम्) प्राक्तनम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (प्रदिशा) प्रदेशेन स्वशासनेन (दिशन्ता) प्रददतौ [आ सदताम्] इति पूर्वेणान्वयः ॥

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