अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
ऋषिः - अङ्गिराः
देवता - जातवेदा अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त
37
तनू॑नपात्प॒थ ऋ॒तस्य॒ याना॒न्मध्वा॑ सम॒ञ्जन्त्स्व॑दया सुजिह्व। मन्मा॑नि धी॒भिरु॒त य॒ज्ञमृ॒न्धन्दे॑व॒त्रा च॑ कृणुह्यध्व॒रं नः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतनू॑ऽनपात् । प॒थ: । ऋ॒तस्य॑ । याना॑न् । मध्वा॑ । स॒म्ऽअ॒ञ्जन् । स्व॒द॒य॒ । सु॒ऽजि॒ह्व॒ । मन्मा॑नि । धी॒भि: । उ॒त । य॒ज्ञम् । ऋ॒न्धन् । दे॒व॒ऽत्रा । च॒ । कृ॒णु॒हि॒ । अ॒ध्व॒रम् । न॒: ॥१२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तनूनपात्पथ ऋतस्य यानान्मध्वा समञ्जन्त्स्वदया सुजिह्व। मन्मानि धीभिरुत यज्ञमृन्धन्देवत्रा च कृणुह्यध्वरं नः ॥
स्वर रहित पद पाठतनूऽनपात् । पथ: । ऋतस्य । यानान् । मध्वा । सम्ऽअञ्जन् । स्वदय । सुऽजिह्व । मन्मानि । धीभि: । उत । यज्ञम् । ऋन्धन् । देवऽत्रा । च । कृणुहि । अध्वरम् । न: ॥१२.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(तनूनपात्) हे विस्तृत पदार्थों के न गिरानेवाले, (सुजिह्व) हे बड़े जयशील वा मधुरभाषी विद्वान् ! (ऋतस्य) सत्य के (यानान्) चलने योग्य (पथः) मार्गों को (मध्वा) ज्ञान से (समञ्जन्) प्रकट करता हुआ (स्वादय) स्वाद ले (धीभिः) कर्मों के साथ (मन्मानि) ज्ञानों (उत) और (यज्ञम्) पूजनीय व्यवहार को (ऋन्धन्) सिद्ध करता हुआ तू (देवत्रा) विद्वानों के बीच (नः) हमारे लिये (अध्वरम्) सन्मार्ग देनेवाला वा हिंसारहित व्यवहार को (च) अवश्य (कृणुहि) कर ॥२॥
भावार्थ
आप्त विद्वान् पुरुष ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड में निपुण होकर संसार का उपकार करते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(तनूनपात्) नभ्राण्नपान्नवेदा०। प० ६।३।७५। इति न+पत्लृ अधःपतने, णिच्−क्विप्। नञः प्रकृतिभावश्च। हे तनूनां विस्तृतानां पदार्थानां न पातयितः। तनूनपात् पदनाम−निघ० ५।२। इदं पदं बहुधा व्याख्यातम्−निरु० ८।५। (पथः) मार्गान् (ऋतस्य) सत्यस्य (यानान्) करणाधिकरणयोश्च। पा० ३।३।११७। इति या प्रापणे−ल्यु। यातव्यान् (मध्वा) मन ज्ञाने−उ नस्य धः। ज्ञानेन (समञ्जन्) सम्यक् प्रकटीकुर्वन् (स्वदय) आस्वादय (सुजिह्व) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। इति जि जये−वन् हुक् च। हे अतिशयेन जयशील मधुरभाषिन् वा (मन्मानि) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। मन ज्ञाने−मनिन्। ज्ञानानि (धीभिः) कर्मभिः−निघ० २।१। (उत) अपि च (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (ऋन्धन्) संसाधयन् (देवत्रा) विद्वत्सु (च) अवश्यम् (कृणुहि) कुरु (अध्वरम्) अ० १।४।१। सन्मार्गदातारं हिंसारहितं वा व्यवहारम् (नः) अस्मभ्यम् ॥
विषय
तनूनपात्
पदार्थ
१. हे ब्रह्मनिष्ठ ! तू (तनूनपात्) = अपने शरीर को गिरने नहीं देता-शरीर के स्वास्थ्य को कभी नष्ट नहीं करता। (ऋतस्य पथः यानान्) = ऋत के मार्ग पर गमनों को (मध्वा) = माधुर्य से (समजन्) = अलंकृत करनेवाला होता है। तू सदा ऋत के मार्ग पर चलता है और तेरे आने-जाने के सब कर्म माधुर्य से युक्त होते हैं। तु अपनी गतियों से किसी को पीड़ित नहीं करता। है (सुजिह्व) = उत्तम जिहाबाले! (स्वदया) = तू सभी के जीवन को स्वादयुक्त बनानेवाला होता है। २. तू (मन्मानि) = अपने ज्ञानों को (धीभि:) = बुद्धियों के द्वारा अथवा बुद्धिपूर्वक कर्मों के द्वारा (ऋन्धन्) = बढ़ानेवाला होता है, (उत) = और (यज्ञम्) = यज्ञ को भी बढ़ानेवाला होता है (च) = और (न:) = हमसे (उपदिष्ट अध्वरम्) = यज्ञ को (देवत्रा) = देवों के विषय में (कृणुहि) = कर। ब्रह्मयज्ञ आदि पाँचों यज्ञों को करनेवाला बन।
भावार्थ
हम शरीर के स्वास्थ को स्थिर रक्खें, ऋत के मार्ग का मधुरता से आक्रमण करें, मधुर शब्दों से सबके मनों को आनन्दित करें, बुद्धिपूर्वक कर्म करते हुए ज्ञान को बढाएँ। यज्ञ को सिद्ध करें, देवों के विषय में यज्ञों को करनेवाले हों-उनकी हिंसा से दूर रहें।
भाषार्थ
(सुजिह्व) हे उत्तम वेदवाक् वाले ! (तनूनपात्) तनू अर्थात् शरीर को न गिरने देनेवाले! [इस में शक्ति देनेवाले !], (ऋतस्य पथ: ) सत्य के पथरूप (यानान्) जीवन मार्गों को (मध्वा ) मधु के साथ (समञ्जन्) कान्ति सम्पन्न करता हुआ मधुर करता हुआ (स्वदय) इन्हें स्वादु कर। (धोभिः) हमारे ध्यानरूपी कर्मों द्वारा (मन्मानि) मनन योग्य वैदिक स्तोत्रों को, (यज्ञम्) और ध्यानकर्मरूपी-यज्ञ को ( ऋन्धन्) ऋद्धिसम्पन्न करता हुआ तू (देवत्रा) अन्य ध्यानी देवों में भी (न:) हमारे (अध्वरम्) हिंसा-रहित यज्ञ का (कृणुहि) सम्पादन कर ।
टिप्पणी
[मन्मानि=वैदिक स्तोत्र अर्थात् स्तुतिमन्त्रों को। यथा "मन्मभि: = मननीयै: स्तोमै:” (निरुक्त १०।१।४)। सुजिह्व= सु +जिह्वा वाङ्नाम (निघं० १।११) । मध्वा=माधुर्य के साथ। मधुर वाणी स्वादु होती है, सबको प्रिय होती है। अध्वरम्= 'ध्वरतिहिंसाकर्मा, तत्प्रतिषेधः' (निरुक्त १।३।८)।]
विषय
विद्वानों द्वारा आत्मा और ईश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे (तनू-नपात्) शरीर को न गिरने देने वाले, या-इन्द्रियों को न गिरने देने वाले ! उनको विनष्ट होने से बचाने वाले अग्ने ! आत्मन्, योगिन् ! (ऋतस्य) सत्य ज्ञानमय परब्रह्म के (यानान्) जानने के साधन रूप (पथः) मार्गों को (मध्वा) आनन्द रस से (सम्-अञ्जन्) प्रकाशित करता हुआ हे (सु-जिह्व) शोभन आनन्द ग्रहण करने में चतुर शक्ति से युक्त ! तू (स्वदय) उस आनन्द-रस का उपभोग कर। और (यज्ञम्) इस योगमय यज्ञ को (ऋन्धन्) और भी अधिक गुणों से समृद्ध करता हुआ अथवा (यज्ञम्) यज्ञमय प्रजापति को (ऋन्धन्) अपने में प्रगुणित करता हुआ, उसकी उपासना करता हुआ (धीभिः) धारणावती वुद्धियों से (मन्मानि) मनन करने योग्य ज्ञानों को (उत) भी सम्पादन करता हुआ (देवत्रा) देवों में, प्राणों में, या ज्ञान प्रकाश करने वाले गुरुओं के समक्ष (नः) हमारे (अध्वरं) इस अहिंसामय निर्विघ्न यज्ञ को (कृणुहि) सम्पादित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अंगिरा ऋषिः। जातवेदा देवता। आप्री सूक्तम्। १, २, ४-११ त्रिष्टुभः। ३ पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna of Life
Meaning
Maintaining the body beyond fear and fall, holy and sophisticated of speech and taste, sprinkle the paths of truth worth following with honey sweets of culture and creativity, enjoy them and lead on others to enjoy them and follow. Energising and elevating thoughts and yajnic meets with a high order of knowledge and action, raise the yajnic order and accomplish and fulfil this programme of love, non-violence and service worthy of the divines.
Translation
O Tanūnapät (son of thyself ?), do thou anointing with honey (madhu) the roads that go to righteousness (rta), sweeten them, O well-tongued one; prospering (rndhan) with prayers (dhi) the devotions (mianmàni). and the sacrifice, put (kr) thou also among the gods our service (adhvara). (Tanunapat) (Also Yv. XXIX. 26).
Translation
This fire of Yajna has nice tongues, the flames. It glowing the paths conveying moistures with it splendor consumes the oblation. This fire accomplishing the knowledge and yajna with acts makes our it non violent with its wondrous powers.
Translation
O fair-tongued preserver of various objects, make pleasant for all, the commendable paths of rectitude, with thy sweet sermon and excellent exposition. Develop the society and philosophical subjects with thy holy thoughts, and strengthen our innocuous worship through learned persons!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(तनूनपात्) नभ्राण्नपान्नवेदा०। प० ६।३।७५। इति न+पत्लृ अधःपतने, णिच्−क्विप्। नञः प्रकृतिभावश्च। हे तनूनां विस्तृतानां पदार्थानां न पातयितः। तनूनपात् पदनाम−निघ० ५।२। इदं पदं बहुधा व्याख्यातम्−निरु० ८।५। (पथः) मार्गान् (ऋतस्य) सत्यस्य (यानान्) करणाधिकरणयोश्च। पा० ३।३।११७। इति या प्रापणे−ल्यु। यातव्यान् (मध्वा) मन ज्ञाने−उ नस्य धः। ज्ञानेन (समञ्जन्) सम्यक् प्रकटीकुर्वन् (स्वदय) आस्वादय (सुजिह्व) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। इति जि जये−वन् हुक् च। हे अतिशयेन जयशील मधुरभाषिन् वा (मन्मानि) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। मन ज्ञाने−मनिन्। ज्ञानानि (धीभिः) कर्मभिः−निघ० २।१। (उत) अपि च (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (ऋन्धन्) संसाधयन् (देवत्रा) विद्वत्सु (च) अवश्यम् (कृणुहि) कुरु (अध्वरम्) अ० १।४।१। सन्मार्गदातारं हिंसारहितं वा व्यवहारम् (नः) अस्मभ्यम् ॥
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