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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त
    38

    उ॒पाव॑सृज॒ त्मन्या॑ सम॒ञ्जन्दे॒वानां॒ पाथ॑ ऋतु॒था ह॒वींषि॑। वन॒स्पतिः॑ शमि॒ता दे॒वो अ॒ग्निः स्वद॑न्तु ह॒व्यं मधु॑ना घृ॒तेन॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽअव॑सृज । त्मन्या॑ । स॒म्ऽअ॒ञ्जन् । दे॒वाना॑म् । पाथ॑: । ऋ॒तु॒ऽथा । ह॒वींषि॑ ।वन॒स्पति॑: । श॒मि॒ता । दे॒व: । अ॒ग्नि: । स्वद॑न्तु । ह॒व्यम् । मधु॑ना । घृ॒तेन॑ ॥१२.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपावसृज त्मन्या समञ्जन्देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि। वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽअवसृज । त्मन्या । सम्ऽअञ्जन् । देवानाम् । पाथ: । ऋतुऽथा । हवींषि ।वनस्पति: । शमिता । देव: । अग्नि: । स्वदन्तु । हव्यम् । मधुना । घृतेन ॥१२.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वान् पुरुष तू] (त्मन्या) आत्मबल से (समञ्जन्) यथावत् प्रकट करता हुआ (देवानाम्) विद्वानों के (पाथः) रक्षासाधन अन्न और (हवींषि) देने-लेने योग्य पदार्थों को (ऋतुथा) ऋतु-ऋतु में (उप-अव-सृज) आदरपूर्वक दिया कर। (वनस्पतिः) किरणों का स्वामी सूर्य, (शमिता) शान्तिकर्ता (देवः) दानशील मेघ और (अग्निः) अग्नि (हव्यम्) अन्न को (मधुना) मीठे रसवाले (घृतेन) जल के साथ (स्वदन्तु) स्वादु बनावें ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्य आत्मबल से अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके सुपात्रों को सदा दान करें और सूर्य, जल, अग्नि द्वारा पदार्थों को उत्तम बनावें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(उपावसृज) सत्कारेण देहि (त्मन्या) आत्मन्−टा इति स्थिते। मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। पा० ६।४।१४१। इति टाविभक्तौ, आकारलोपः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेर्या इत्यादेशः। आत्मना। आत्मबलेन (समञ्जन्) सम्यक् प्रकटयन् (देवानाम्) विदुषाम् (पाथः) अ० २।३४।२। रक्षासाधनम्। अन्नम् (ऋतुथा) ऋतावृतौ काले काले−निरु० ८।१७। (हवींषि) देयग्राह्यपदार्थान् (वनस्पतिः) किरणानां पालकः सूर्यः (शमिता) शमु शान्तीकरणे−तृन्। शान्तीकरः। सुखयिता (देवः) दानशीलो मेघः (अग्निः) पावकः (स्वदन्तु) स्वादयन्तु। स्वादु कुर्वन्तु (हव्यम्) अदनीयमन्नम् (मधुना) मधुररसयुक्तेन (घृतेन) उदकेन−निघ० १।१२ ॥

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    विषय

    वनस्पतिः, शमिता, देवः, अग्रिः,

    पदार्थ

    १. हे जमदग्ने! तू (त्मन्या) = स्वयं (देवानां पाथे) = देवताओं के मार्ग में, अर्थात् देवयान पर चलते हुए (समञ्जन) = अपने जीवन को सदगुणों से अलंकृत करने के हेतु से (ऋतुथा) = ऋतु के अनुसार (हवींषि) = हव्य पदार्थों को (उपावसृज) = उपासना के साथ-प्रभु स्मरणपूर्वक अपने में डाल, अर्थात् प्रभु-स्मरणपूर्वक हव्य पदार्थों का भोजन कर । तू देवयानमार्ग से चलनेवाला बन और सात्त्विक भोजन का सेवन कर, तभी तुझमें दिव्य गुणों का विकास होगा। २. (वनस्पति:) = तू ज्ञान की किरणों का पति बन, (शमिता) = शान्त स्वभाववाला हो। (देवः) = दिव्य गुणों का अपने में विस्तार कर, (अग्निः) = निरन्तर आगे बढ़नेवाला हो। इसप्रकार वनस्पति, शमिता, देव व अग्नि' (हव्यम) = हव्य पदार्थों को, पवित्र भोजनों को (मधुना घृतने) = शहद व घृत के साथ (स्वदन्तु) = खानेवाले हों। वस्तुतः ये "हव्य, मधु व घृत' रूप मधुर पदार्थ ही हमें 'वनस्पति, सविता, देव व अग्नि' बनाते हैं।

    भावार्थ

    हम देवयानमार्ग से चलते हुए जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करने के लिए सात्विक भोजन का ही सेवन करें-'हव्य, मधु व घृत' का ही प्रयोग करें।

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    भाषार्थ

    [हे यजमान !] (त्मन्या) स्वयं तू ( देवानाम्) ऋत्विक्-देवों के खाद्य (पाथः) यज्ञिय अन्न को [मधुर घृत द्वारा] (समञ्जन्) संमिश्रित करता हुआ उसे तथा (ऋतुथा) ऋत्वनुसार (हवींषि) यज्ञिय हवियों को (उपावसृज) तैयार कर। (वनस्पतिः) वनस्पति, (शमिता) पाचक तथा (देवः अग्निः) द्योतमान अग्नि (मधूना घृतेन) मधुर घृत द्वारा (हव्यम्) अदनयोग्य अर्थात् भक्ष्य-अन्न को (स्वदन्तु) स्वाद-युक्त करें। त्मन्या=आत्मना ।

    टिप्पणी

    [वनस्पति से ईंधन मिलता है, शमिता अर्थात् पाचक शाक-भाजी को काटता है और द्योतमान अग्नि हव्य को पकाती है। इस सुक्त के विनियोग में "कोशिकसूत्र ४५।१६ के अनुसार वशा गौ की वषा को चार खण्डों में विभक्त१ कर उन द्वारा आहुतियों का कथन सायण ने किया है।] [१. मन्त्र में वशा-गों का वर्णन नहीं। 'शमिता' पद को, तथा "शम्नाति वधकर्मा" में (निघं० २।१९) को दृष्टि में रखकर यह भ्रष्ट अर्थ कल्पित किया है। शाक-भाजी का काटना भी तो उसका शमन करता ही है।]

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    विषय

    विद्वानों द्वारा आत्मा और ईश्वर के गुणों का वर्णन।

    भावार्थ

    वनस्पतिरग्निर्वा देवता। हे होतः ! आत्मन् ! तू (ऋतु-था) प्रति ऋतु के अनुसार (देवानां पाथः) देवों, इन्द्रियों के निमित्त अन्न, भोग्य विषय और (हवींषि च) ज्ञानों को (त्मन्या सम्-अञ्जन्) स्वयं प्रकट करता हुआ (उप-अवसृज) उनको प्रदान कर। (वनस्पतिः) वन-इन्द्रियों का स्वामी, जितेन्द्रिय, (शमिता) शम दमादि से युक्त, (देवः) विद्वान् योगी, (अग्निः) और ज्ञानी पुरुष ये तीनों (घृतेन) तेजोमय, प्रदीप्त ज्योति और (मधुना) मधुर आनन्द-रस के साथ (हव्यं) ज्ञान का (स्वदन्तु) आस्वाद, ग्रहण करें। यज्ञ पक्ष में—होता ऋतुओं के अनुसार सामग्री चरु आदि हवि तैयार करे और उसको अग्नि में, वनस्पति में और जीवों में भी वितरण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। जातवेदा देवता। आप्री सूक्तम्। १, २, ४-११ त्रिष्टुभः। ३ पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna of Life

    Meaning

    O yajamana, sincerely preparing and seasoning the food and fragrances for the divinities according to the seasons offer it into the vedi and pray may Vanaspati, lord of herbs, the spirit of nature at peace, the sun and Agni enjoy the holy offerings and bless the greens with ghrta and honey sweets.

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    Translation

    In thy way (tmanya) anointing them, pour thou down upon (upava-sri) the track of the gods the oblations in due season; let the forest tree (vanaspati), the queller (samità), god Agni, relish (svadantu) the oblation with honey; with ghee: (Vanaspati) (Also Yv. XXIX.35)

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    Translation

    O performer of yajna! you with your own desire offer in the yajna according to season the oblations which are the ford of physical forces. Let the sun, cloud and fire make eatable thing sweet and tasty with sweetness and juice.

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    Translation

    O learned person, put into fire, at different seasons with devotion, in the form of oblations, eatables mixed with honey and butter, fit to be taken by the learned. May the sun, cloud, and fire receive thy oblations.

    Footnote

    Articles put into the fire in the performance of Havan, being rarefied reach the sun and cloud.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(उपावसृज) सत्कारेण देहि (त्मन्या) आत्मन्−टा इति स्थिते। मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। पा० ६।४।१४१। इति टाविभक्तौ, आकारलोपः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेर्या इत्यादेशः। आत्मना। आत्मबलेन (समञ्जन्) सम्यक् प्रकटयन् (देवानाम्) विदुषाम् (पाथः) अ० २।३४।२। रक्षासाधनम्। अन्नम् (ऋतुथा) ऋतावृतौ काले काले−निरु० ८।१७। (हवींषि) देयग्राह्यपदार्थान् (वनस्पतिः) किरणानां पालकः सूर्यः (शमिता) शमु शान्तीकरणे−तृन्। शान्तीकरः। सुखयिता (देवः) दानशीलो मेघः (अग्निः) पावकः (स्वदन्तु) स्वादयन्तु। स्वादु कुर्वन्तु (हव्यम्) अदनीयमन्नम् (मधुना) मधुररसयुक्तेन (घृतेन) उदकेन−निघ० १।१२ ॥

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