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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त
    46

    स॒द्यो जा॒तो व्य॑मिमीत य॒ज्ञम॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत्पुरो॒गाः। अ॒स्य होतुः॑ प्र॒शिष्यृ॒तस्य॑ वा॒चि स्वाहा॑कृतं ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒द्य: । जा॒त: । वि । अ॒मि॒मी॒त॒ । य॒ज्ञम् । अ॒ग्नि: । दे॒वाना॑म् । अ॒भ॒व॒त् । पु॒र॒:ऽगा: । अ॒स्य । होतु॑: । प्र॒ऽशिषि॑ । ऋ॒तस्य॑ । वा॒चि । स्वाहा॑ऽकृतम् । ह॒वि: । अ॒द॒न्तु॒ । दे॒वा: ॥१२.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सद्यो जातो व्यमिमीत यज्ञमग्निर्देवानामभवत्पुरोगाः। अस्य होतुः प्रशिष्यृतस्य वाचि स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सद्य: । जात: । वि । अमिमीत । यज्ञम् । अग्नि: । देवानाम् । अभवत् । पुर:ऽगा: । अस्य । होतु: । प्रऽशिषि । ऋतस्य । वाचि । स्वाहाऽकृतम् । हवि: । अदन्तु । देवा: ॥१२.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (सद्यः) शीघ्र (जातः) प्रसिद्ध होकर (अग्निः) विद्वान् पुरुष ने (यज्ञम्) पूजनीय व्यवहार को (वि) विशेष करके (अमिमीत) निर्माण किया, और (देवानाम्) विद्वान् लोगों का (पुरोगाः) अगुआ (अभवत्) हुआ। (अस्य) इस (होतुः) दानशील, (ऋतस्य) सत्यशील पुरुष के (प्रशिषि) अनुशासन और (वाचि) वाणी में (देवाः) विद्वान् लोग (स्वाहाकृतम्) सुन्दर वाणी से सिद्ध किया हुआ (हविः) खाने योग्य अन्न आदि (अदन्तु) खावें ॥११॥

    भावार्थ

    पुरुषार्थी मनुष्य उत्तम कर्म करने से विद्वानों का अग्रगामी होता है और उसीके शासन और वचन में चलकर विद्वान् लोग आनन्द भोगते हैं ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(सद्यः) शीघ्रम् (जातः) प्रकटः सन् (वि) विशेषेण (अमिमीत) माङ् माने शब्दे च, जुहोत्यादिः−लङ्। निर्मितवान् (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (अग्निः) ज्ञानवान् पुरुषः (देवानाम्) विदुषाम् (अभवत्) (पुरोगाः) गमेर्विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति मस्याकारः। अग्रगामी (अस्य) विदुषः (होतुः) दातुः (प्रशिषि) प्रशासने (ऋतस्य) सत्यस्वभावस्य (वाचि) वाण्याम् (स्वाहाकृतम्) सुवाण्या निष्पादितम् (हविः) आद्यमन्नम् (अदन्तु) भुञ्जताम् (देवाः) विद्वांसः ॥

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    विषय

    यज्ञशील गृहस्थ

    पदार्थ

    १. (जात:) = आचार्य-गर्भ से उत्पन्न हुआ-हुआ-आर्चायकुल से लौटा हुआ (सद्यः) =  शीघ्र ही (यज्ञं व्यमिमीत) = यज्ञों को करनेवाला बनता है। एक सद्गृहस्थ को पाँचों महायज्ञ करने ही चाहिएँ, तभी यह (अग्निः) = आगे बढ़नेवाला होता है, (देवानां पुरोगा: अभवत्) = आगे बढ़ते-बढ़ते यह देवों का भी अग्रगामी बनता है-देवों में भी इसका स्थान प्रथम होता है। २. (अस्य होतुः) = इस सृष्टियज्ञ के होता परमात्मा के (प्रशिषि) = प्रकृष्ट निर्देश में (ऋतस्य) = सत्य वेदवाणी के, अर्थात् प्रभु के वेद में प्रतिपादित मार्ग के अनुसार (स्वाहाकृतम्) = अग्नि में 'स्वाहा' शब्दोच्चारणपूर्वक डाली हुई (हवि:) = हवि को-हव्य पदार्थ को (देवा:) = माता, पिता आचार्य व अतिथि आदि देव (अदन्तु) = खाएँ, अर्थात् मनुष्य वेदोपदिष्ट मार्ग से अग्निहोत्र करके माता, पिता, आचार्य व अतिथि आदि को श्रद्धापूर्वक खिलाये। इन्हें खिलाकर यज्ञशेष का खाना ही हमारी अमरता का साधन है।

    भावार्थ

    आचार्यकुल से समावृत्त होकर हम गृहस्थ बनें और यज्ञशील हों। वेद के आदेश के अनुसार अग्निहोत्र करें। माता-पिता आदि को खिलाकर उनके पश्चात् भोजन करें, अतिथियों से पूर्व न खाने लग जाएँ। यज्ञशेष का सेवन करनेवाले ही देव व अमर बनते हैं।

    विशेष

    अगले सूक्त में बिष-निवारण का प्रकरण है। जीवन के लिए विष की बाधा एक प्रबल विघ्न है। इसका दूर करना आवश्यक ही है, सों को समाप्त करनेवाला 'गरुत्मान्-गरुड़ अगले सूक्त का ऋषि है। गरुत्मान् सपों को समाप्त करता है। विष-चिकित्सक को भी 'गरुत्मान्' कह दिया गया है -


     

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    भाषार्थ

    (जातः) उत्पन्न अग्नि (सद्यः) तत्काल (यज्ञम व्यमिमीत) यज्ञ का निर्माण करती है, (अग्निः) अग्नि ( देवानाम्) याज्ञिक देवों तथा वायु आदि देवों का (पुरोगा: अभवत्) अग्रगामी अर्थात् नेता हुआ है। (तस्य) यज्ञ के (प्रशिषि) प्रशासन में, अर्थात् यज्ञ की विधि के अनुशार (अस्य होतु: वाचि) इस अग्निरूप होता की जिह्वा में (स्वाहा कृतम्) स्वाहा द्वारा हुत किये गये (हविः१) अर्थात् अन्न को तथा हवियों [मन्त्र १०] को (देवा:) ऋत्विक् आदि मानुष-देव, तथा वायु आदि दिव्य तत्व (अदन्तु) भक्षण करें।

    टिप्पणी

    [होतुः= हु दाने (जुहोत्यादिः)। अग्नि 'होता' है, दाता है। अग्नि में 'पाथः' की आहुतियाँ देकर, यज्ञशेष का भक्षण ऋत्विक्, यजमान तथा पत्नी आदि करते है, मानो अग्नि ने खाने के लिए उन्हें यज्ञशेष दिया है। इसी प्रकार हवियों की भी आहुतियों से निष्पन्न यज्ञिय-धूम, अग्नि ने ही वायु आदि दिव्य-तत्त्वों को दिये हैं। वाचि=वेद में वाक् और जिह्वा पद लगभग पर्यायवाचक भी हैं। अग्नि की सात जिह्वाएं अर्थात् ज्वालाएं होती हैं, जिन्हें कि वाक् कहा है, इन सात जिह्वाओं में आहुतियाँ दी जाती हैं (मुण्डक उप० १, खं० २, सन्दर्भ ४)। जिह्वा वाङ्नाम (निघं० १।११) ऋतम् =यज्ञ; यथा ऋतावृधा=यज्ञवधो वा (निरुक्त १२।३।३३)।] [१. हवि पद 'पाथः काया हवींषि' दोनों का सूचक हैं (मंत्र १०)। पाथ: "अन्नमपि पाथः उच्यते, पानादेव" (निरुक्त ६/२/६) तथा (निरुक्त ८।३।१७) । हवि: पर निष्पन्न है 'हु' धातु से, जिसके दो अर्थ हैं, अन्न और दान। अदन अर्थ में हवि:, है खाद्यान्न [पाथः] और दानार्थ में हवि: है यज्ञियाग्नि में आहुतियों द्वारा प्राकृतिक वायु आदि में देय हवियां।]

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    विषय

    विद्वानों द्वारा आत्मा और ईश्वर के गुणों का वर्णन।

    भावार्थ

    विद्वान् अग्निर्देवता। (अग्निः) ज्ञानमय विद्वान् (सद्यः जातः) शीघ्र ही प्रकट होकर (यज्ञं वि-अमिमीत) यज्ञ का अनुष्ठान करता है। वही (देवानां पुरः-गाः अभवत्) समस्त विद्वानों का अग्रणी हो जाता है। (ऋतस्य) ब्रह्म ज्ञानमय (अस्य होतुः) इस होता के (प्रशिषि) उत्कृष्ट शासन में रह कर (वाचि) वाणी रूप वाङ्मय में (स्वाहा-कृतं हविः) उत्तम वचनों और सूक्तियों के रूप में प्रकट किये ज्ञान को (देवाः) विद्वान् लोग (अदन्तु) भोग करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। जातवेदा देवता। आप्री सूक्तम्। १, २, ४-११ त्रिष्टुभः। ३ पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna of Life

    Meaning

    Agni, refulgent deity of yajna, instantly and always rising, accomplishes the yajna and thereby becomes pioneer of divine powers. Thereby, may the divinities receive and consume the food offered into the fire within the noble yajamana’s discipline of the law and language of truth and yajna with the spirit of total surrender.

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    Translation

    At once, when born, he determined (vyamimita) the sacrifice; Agni became foremost of the gods; at the direction of this invoker, at the voice of righteousness (rta), let the gods eat the oblation made with 'hail'. (svaha krtam havih) (Also Yv. XXIX.36).
    Apri-hymns.: This set of eleven or twelve verses is known as Apri hymns; the Nirukta, chapter VIII is entirely devoted to the Apris. The eleven Apris are: (i) Samiddhah agnih, (ii) narasamsa, (iii) Idah, (iv) barih, (v) devio-dvarah, (vi) usasa-nakta, (viii) three devih— ida, bharati and sarasvati, (ix) tvastr, (x) vanaspati and (xi) svāhā krti oblation. All these terms glorify fire. (For Apri hymns, ‘see Rg. I.13; I,142; I.188 etc.)

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    Translation

    The fire as soon as it becomes manifest becomes the means of yajna and it is the preceder of all the celestial forces which are concerned with the yajnas. May all these celestial forces consume the oblation offered in the yajna through the pronouncement of vaka according to the guidance of priest and dictates of true eternal vedic hymn.

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    Translation

    The enlightened person, who speedily attains to fame and manages different transactions, with truth-imbued words of a learned fellow, and precedes scholars, and the remnants of whose properly performed Homa are eaten by the learned, deserves all-round veneration.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(सद्यः) शीघ्रम् (जातः) प्रकटः सन् (वि) विशेषेण (अमिमीत) माङ् माने शब्दे च, जुहोत्यादिः−लङ्। निर्मितवान् (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (अग्निः) ज्ञानवान् पुरुषः (देवानाम्) विदुषाम् (अभवत्) (पुरोगाः) गमेर्विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति मस्याकारः। अग्रगामी (अस्य) विदुषः (होतुः) दातुः (प्रशिषि) प्रशासने (ऋतस्य) सत्यस्वभावस्य (वाचि) वाण्याम् (स्वाहाकृतम्) सुवाण्या निष्पादितम् (हविः) आद्यमन्नम् (अदन्तु) भुञ्जताम् (देवाः) विद्वांसः ॥

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