अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
यदि॑ चि॒न्नु त्वा॒ धना॒ जय॑न्तं॒ रणे॑रणे अनु॒मद॑न्ति विप्राः। ओजी॑यः शुष्मिन्त्स्थि॒रमा त॑नुष्व॒ मा त्वा॑ दभन्दु॒रेवा॑सः क॒शोकाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । चि॒त् । नु। त्वा॒ । धना॑ । जय॑न्तम् । रणे॑ऽरणे । अ॒नु॒ऽमद॑न्ति । विप्रा॑: । ओजी॑य: । शु॒ष्मि॒न् । स्थि॒रम् । आ ।त॒नु॒ष्व॒ । मा । त्वा॒ । द॒भ॒न् । दु॒:ऽएवा॑स: । क॒शोका॑: ॥२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि चिन्नु त्वा धना जयन्तं रणेरणे अनुमदन्ति विप्राः। ओजीयः शुष्मिन्त्स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन्दुरेवासः कशोकाः ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । चित् । नु। त्वा । धना । जयन्तम् । रणेऽरणे । अनुऽमदन्ति । विप्रा: । ओजीय: । शुष्मिन् । स्थिरम् । आ ।तनुष्व । मा । त्वा । दभन् । दु:ऽएवास: । कशोका: ॥२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
विषय - लक्ष्मी के साथ विष्णु
पदार्थ -
१. (यदि) = यदि (नु) = अब (चित्) = निश्चय से (विप्रा:) = जानी पुरुष (रणेरणे) = प्रत्येक संग्राम में धना (जयन्तं त्वा) = धनों का विजय करनेवाले आपको (अनुमदन्ति) = अनुकूलता से स्तुत करते हैं तो हे (शुष्मिन्) = शत्रु-शोषक बलवाले प्रभो! आप (ओजीयः) = ओजस्वितावाले (स्थिरम्) = स्थिर धन को (आतनुष्व) = हमारे लिए विस्तृत करो। हमें धन प्राप्त हो। हमारा धन हमारी ओजस्विता को बढ़ानेवाला हो और चित्तवृत्ति को स्थिर करनेवाला हो। २. इसके कारण हमारे जीवनों में (दुरेवास:) = दुर्गमनवाले-अशुभ आचरणवाले (कशोका:) = [क-शोकाः] पर-सुख में शोक करनेवाले ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि के भाव (त्वा मा दभन्) = आपको हिंसित न कर दें, अर्थात् धनों में आसक्त होकर हम आपको न भूल जाएँ।
भावार्थ -
हम धनों के विजेता प्रभु का स्मरण करें। प्रभु-स्मरण के साथ प्राप्त धन हमारे अन्दर स्थिर ओज को प्राप्त करानेवाले हों। धनों में आसक्त होकर हम ईष्या-द्वेष आदि में फंसकर प्रभु को न भूल जाएँ।
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